उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के बीच चुनावी गठजोड़ को लेकर जारी बातचीत से बात बनने के बजाय जिस तरह बिगड़ गई उससे एक बार फिर यही स्पष्ट हुआ कि अपने देश में गठबंधन राजनीति का कोई ठिकाना नहीं। कोई भरोसा नहीं कि कब किसके बीच गठबंधन हो जाए और कब टूट जाए? जितना सामान्य समान विचारों वाले दलों के बीच गठबंधन होना है उतना ही विपरीत विचारों वालों के बीच भी। कभी एक-दूसरे के प्रबल विरोधी भी गठबंधन कर लेते हैं और कभी समान सोच वाले दल भी गठबंधन तोड़कर एक-दूसरे के खिलाफ खड़े हो जाते हैं। पता नहीं सपा और कांग्रेस के बीच टूटी बातचीत किसी तालमेल में तब्दील होगी या नहीं, लेकिन यह विचित्र है कि जो कांग्र्रेस अभी कल तक गठबंधन के लिए उतावली दिख रही थी वह अब अलग चुनाव लड़ने की चुनौती पेश करती दिख रही है। यदि उसे ऐसा ही करना था तो फिर सपा से हाथ मिलाने के लिए बेकरार दिखने की क्या जरूरत थी? यह समझना कठिन है कि मिलकर चुनाव लड़ने की बातचीत केवल इसलिए टूट गई, क्योंकि कांग्रेस 120 सीटें चाह रही थी और सपा सौ से अधिक सीटें देने को तैयार नहीं थी। यदि कांग्रेस मात्र बीस सीटों के लिए गठबंधन से पीछे हटती है अथवा अपने बलबूते चुनाव में उतरने की तैयारी करती है तो उसके लिए इस सवाल का जवाब देना मुश्किल होगा कि यदि वह खुद को इतना ही सक्षम मान रही थी तो फिर उसने चुनावी तालमेल की कोशिश ही क्यों की? इसके पहले उसके लिए अपने लोगों को यह समझा पाना मुश्किल हो रहा था कि यकायक 27 साल-यूपी बेहाल का नारा क्यों छोड़ दिया गया और मुख्यमंत्री के दावेदार के रूप में शीला दीक्षित को किनारे क्यों किया गया?
कांग्रेस कुछ भी दावा करे, लेकिन पिछले दो-तीन माह से उसने उत्तर प्रदेश में अपनी चुनावी रणनीति जिस तरह बार-बार बदली उससे यही स्पष्ट हो रहा है कि उसके पास कोई ठोस नीति नहीं है। यदि कांग्रेस अकेले चुनाव लड़ने के लिए विवश होती है तो उसे कहीं अधिक घाटा उठाना पड़ सकता है, क्योंकि आम जनता के बीच यही संदेश जाएगा कि उसने मजबूरी में अकेले चुनाव लड़ने का फैसला किया। यदि कांग्रेस बिहार में गठबंधन में शामिल होकर केवल चालीस सीटों पर लड़ने के लिए तैयार हो सकती है तो उसे उत्तर प्रदेश में सौ सीटें कम क्यों लग रही हैं? जो भी हो, चुनावी तालमेल न होने की स्थिति में सपा को भी थोड़ा-बहुत नुकसान उठाना पड़ सकता है। ऐसा लगता है कि सपा कांग्रेस को इसलिए सौ से अधिक सीटें देने के लिए तैयार नहीं हुई, क्योंकि अब उसके समक्ष पार्टी का कोई दूसरा गुट नहीं रह गया है। यह तय है कि सपा और कांग्रेस में अलगाव से बसपा भी उत्साहित होगी और भाजपा भी, लेकिन यह अभी भी स्पष्ट नहीं कि कौन किस पर भारी पड़ने जा रहा है।

[ मुख्य संपादकीय ]