उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में करारी हार के बाद कांग्रेस के अंदर से उठ रही तरह-तरह की आवाजों के आधार पर ऐसे किसी नतीजे पर नहीं पहुंचा जा सकता कि वह अपनी रीति-नीति में जरूरी बदलाव लाने के लिए तैयार है। इसके प्रति भी सुनिश्चित नहीं हुआ जा सकता कि सोनिया गांधी के विदेश से लौटने के बाद कांग्रेस कार्यसमिति में पार्टी की भावी दिशा और दशा पर गंभीरता से विचार होगा ही। ऐसा इसलिए, क्योंकि बीते लोकसभा चुनाव में पार्टी के 44 सीटों पर सिमट आने के कारणों का पता अब तक नहीं लगाया जा सका। कोई नहीं जानता कि लोकसभा चुनाव में जबरदस्त हार की तह तक जाने के लिए गठित एंटनी समिति की रपट कहां गई? कांग्रेस या अन्य कोई पराजित दल अपनी गलतियों को जानने-समझने में तभी सक्षम हो सकता है जब वह इस सवाल का सामना करने को तैयार हो कि कहीं उससे गलती तो नहीं हुई? बीते ढाई सालों में कांग्रेस का रवैया ऐसा रहा है मानों 2014 में देश की जनता ने भाजपा को सत्ता में लाकर गलती कर दी थी। उसने राज्यसभा में अपने संख्याबल का इस्तेमाल इस रूप में किया जैसे जनादेश को दुरुस्त करने की जिम्मेदारी उस पर आ गई है। इस प्रवृत्ति का प्रदर्शन अभी भी हो रहा है। गोवा को लेकर राज्यसभा में हंगामा यही बताता है कि कांग्रेस यह स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं कि उसकी निर्णयहीनता और दिशाहीनता के कारण ही यह राज्य उसके हाथ से फिसल गया। इसकी पुष्टि गोवा कांग्रेस के एक विधायक के इस्तीफे से भी होती है।
यह आश्चर्यजनक है कि कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी को उत्तर प्रदेश में करारी हार केवल मामूली झटका प्रतीत हो रही है। इसमें संदेह है कि उनके अंदर इतना आत्मविश्वास बचा है कि वह कांग्र्रेस को कोई सही दिशा देने में समर्थ हो सकते हैं। भले ही कांग्रेसी नेताओं का एक समूह राहुल को अध्यक्ष पद पर देखना चाहता हो और उन्हें देश का भावी नेता भी मान रहा हो, लेकिन शायद दूसरा समूह उन्हें इस काबिल नहीं मानता और इसीलिए लंबे समय से उनकी पदोन्नति रुकी हुई है। कांग्रेस में राहुल के शुभचिंतक कुछ भी कह रहे हों, सच यही है कि वह उपाध्यक्ष के रूप में बुरी तरह नाकाम हैं। इस नाकामी को इससे नहीं ढका जा सकता कि राजनीतिक दलों के जीवन में उतार-चढ़ाव आते ही हैं। नि:संदेह ऐसा ही होता है, लेकिन इसके साथ ही यह भी सही है कि जो दल समय के साथ खुद को नहीं बदलते और जनता की आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व नहीं करते वे अप्रासंगिक हो जाते हैं-ठीक वैसे ही जैसे वामपंथी दल दो-तीन राज्यों को छोड़कर शेष देश में अपनी अहमियत खो चुके हैं। कांग्रेस को केवल सक्षम नेतृत्व की ही जरूरत नहीं है। उसे नई सोच की भी जरूरत है। युवा होने के बाद भी राहुल गांधी में नई सोच का अभाव तो अधिक दिखता ही है, वह राजनीति को लेकर गंभीर भी नहीं दिखते। इससे भी निराशाजनक यह है कि वह और उनके साथी यह मानकर चलते दिखाई देते हैं कि मोदी सरकार के खिलाफ घिसे-पिटे जुमले दोहराते रहने से वह नरेंद्र मोदी को चुनौती देने में सक्षम हो जाएंगे।

[ मुख्य संपादकीय ]