झारखंड में वर्षों से लंबित चार हजार मामलों का पुलिस द्वारा आगामी पंद्रह दिनों में सुपरविजन कर लेने का लक्ष्य सराहनीय पहल है। अदालतों में मुकदमों का बोझ और पुलिस महकमे में प्राथमिकियों पर तफ्तीश से लेकर सुपरविजन तक के लंबित रहने के लंबे सिलसिले से संबंधित लोगों की परेशानियां बढ़ी रहती हैं। अदालतों में बड़ी संख्या में मुकदमों के लंबित रहने का प्रमुख कारण मानव शक्ति की कमी है, जबकि राज्य पुलिस व्यवस्था में मानव संसाधन का उतना अधिक अभाव नहीं रह गया है। हाल के वर्षों में राज्य के पुलिस महकमे में विभिन्न स्तरों पर खासी नियुक्तियां हुई हैं। पुलिस को आवश्यक अन्य संसाधन भी सरकार ने उपलब्ध कराया है। इसके बावजूद थाना, अनुमंडल और जिला स्तर पर सुपरविजन लंबित रहना निश्चय ही चिंता की बात है। पुलिस मुख्यालय ने जिस प्रकार हठात पंद्रह दिनों में ही सुपरविजन कार्य अद्यतन कर लेने का निर्णय लिया है, इससे उसकी इच्छाशक्तिका पता चलता है। लक्ष्य पूरा हो जाने के बाद यह समीक्षा जरूर की जानी चाहिए कि किन कारणों से ये मामले लंबित थे। सुपरविजन नहीं हो पाने के कारण जाहिर है कि पीडि़त पक्ष को अधिक परेशानी रहती है, जबकि दूसरे पक्ष को अपनी स्थिति मजबूत बना लेने का अवसर मिल जाता है।

हाल के वर्षों में पुलिस का रवैया जनाभिमुख बनाने की बातें खूब हुई हैं लेकिन इस पर अमल किए जाने जैसा बहुत कुछ नजर नहीं आया। इंस्पेक्टर, डीएसपी और एसपी के स्तर पर सुपरविजन के लंबित मामलों का यदि सही-सही निपटारा हो जाता है तो इससे एक बड़ा संदेश जाएगा, जो निश्चय ही पुलिसिंग के रवैये में बदलाव का परिचायक होगा। राज्य के कम से कम चार हजार पीडि़त लोगों के लिए यह संतोष की बात होगी। इतना ही नहीं, संबंधित पदाधिकारी भी निश्चिंतता अनुभव करेंगे। वे इसे अपने कार्य-व्यवहार में उतारेंगे तो एक दिन का काम एक दिन में ही निपटा लेने की उनकी आदत बन जाएगी। आदर्श स्थिति तो यही है कि समाज में अपराध हो ही नहीं और बाकी अन्य बातों के लिए लोग थाना-कचहरी की दौड़ की नौबत न आने दें। व्यवहार में ऐसा नहीं हो पाता, जबकि पुलिस कुछ तो कार्य बोझ और कुछ अपनी मानसिकतावश तफ्तीश और सुपरविजन लटकाए रखती है। इससे उबरने की डीजीपी द्वारा बनाई गई कार्य योजना सफल हो जाए तो हर किसी के लिए यह बहुत ही सुखद अनुभव रहेगा।

[ स्थानीय संपादकीय : झारखंड ]