अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में मृत्यु के बाद सात दिन के नवजात बच्चे का देहदान किया जाना सराहनीय मिसाल है। इतने छोटे बच्चे की देहदान का तो यह पहला मामला है ही, बच्चे के माता-पिता के जज्बे को भी सलाम करना होगा। बच्चे के शव का इस्तेमाल मेडिकल के छात्रों को पढ़ाने व शोध में होगा। इतना साहसिक और कठिन फैसला लेने पर एम्स प्रबंधन ने भी बच्चे के परिजनों को सराहा है। पूरे घटनाक्रम पर निगाह डालें तो इस बच्चे का जन्म सप्ताह भर पूर्व ही हुआ था। बच्चे के जन्म से परिवार में खुशियां छा गईं। स्वाभाविक भी था, लेकिन यह खुशी कुछ ही घंटों बाद तब काफूर हो गईं जब डॉक्टरों ने बताया कि उसके हृदय की धमनियां उलझी हुई हैं और उसे हल्का दिल का दौरा पड़ा है। जन्म के सातवें दिन एम्स के डॉक्टरों ने उस बच्चे की ओपन हार्ट सर्जरी भी की, लेकिन सर्जरी के कुछ घंटे बाद ही उसकी मौत हो गई। शोक के अवसाद में डूबे परिजनों ने इस दुखद घड़ी में भी बच्चे की देहदान का फैसला किया। बच्चे के दादा का बयान भी प्रशंसनीय है, देहदान से थोड़े समय के लिए ही बच्चे के धरती पर आने का मकसद सफल होगा। उसकी आंखें किसी को प्रत्यारोपित की जा सकेंगी। शोध से दो बेहतर डॉक्टर निकल सकेंगे।
देहदान की घोषणा या फॉर्म भर देना जितना सरल है, समय आने पर उसे अमल में लाना उतना ही कठिन कार्य है। जब किसी अपने की मौत होती है तो उसके परिजनों का दर्द शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता। अपनी आंखों के सामने किसी अपने को दम तोड़ते देखना और फिर उसे कंधा देना मजबूत से मजबूत इंसान को भी गहरे अवसाद से भर देता है। ऐसे में देहदान का निर्णय दिल पर पत्थर रखने से कम नहीं है। हालांकि यह भी सच है कि इस तरह का साहसिक निर्णय लेने वालों के दम पर ही बहुत सी व्यवस्थाएं चल पा रही हैं। अगर कोई देहदान या नेत्रदान ही न करे तो जरा सोचिए कि चिकित्सा शोध कितना मुश्किल होगा और किसी नेत्रहीन के जीवन में तो कभी रोशनी आ ही नहीं पाएगी। इसलिए इस तरह की पहल के लिए और भी लोगों को आना चाहिए।

[ स्थानीय संपादकीय : दिल्ली ]