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गांवों में गरीब लोगों को न्याय दिलाने के लिए नक्सली आंदोलन चलाने की बात करते हैं लेकिन वे करोड़ों की वसूली कर अपना बंगला बनाते हैं। बच्चों को देश-विदेश के नामी स्कूलों में पढ़ाते हैं।
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नक्सलियों की लड़ाई सामाजिक न्याय की कोरी बातों से इतर करोड़ों की कमाई पर केंद्रित होते जा रही है। दर्जनों उदाहरण हैं। लेवी की राशि के बंटवारे को लेकर नक्सलियों ने आपस में ही साथियों को मारा है तो क्षेत्र के बड़े व्यापारियों को भी निशाना बनाया है। लेवी के पीछे भले ही कोई थ्योरी दी जाए, मूल में तो इसका अर्थशास्त्र ही है। हथियार खरीदने से लेकर विलासिता के संसाधनों को जुटाने तक में लेवी की राशि का उपयोग नक्सली करते हैं। नक्सलियों के बड़े नेताओं के बाल-बच्चों की पढ़ाई, उनका रहन-सहन और परिवार के लोगों की आमदनी का जरिया भी कहीं न कहीं यही लेवी है। चतरा जिला परिषद अध्यक्ष के पति और टीपीसी जोनल कमांडर कोहराम के बंगला को सील कर पुलिस ने एक बड़ी उपलब्धि हासिल की है। लेकिन, इस उपलब्धि से बड़ा खुलासा यह है कि नक्सली आखिर लेवी की राशि का करते क्या हैं।
यह कार्रवाई नक्सलियों के राजनीतिकरण का बड़ा उदाहरण भी है। नक्सली खुद तो मुख्य धारा में नहीं आ रहे लेकिन इसका मोह भी त्याग नहीं पा रहे। यही कारण है कि खुद को 'जंगलÓ में तो पत्नी, बच्चों और परिवार के अन्य सदस्यों को स्थापित राजनीति का हिस्सा बनाते हैं। यह साबित करना तो कठिन है कि पत्नी को जिला परिषद अध्यक्ष बनाने में नक्सली राशि का कितना प्रयोग हुआ लेकिन इसके संकेत तो इस कार्रवाई मात्र से जगजाहिर हैं। सिर्फ वोट दिलाने में ही नहीं, जीत दिलाने में भी नक्सली अपनी भूमिका निभाते हैं। दूसरों के लिए भी। तमाम छोटे-बड़े नेताओं पर भी आरोप लगते रहे हैं। नक्सलियों से मदद लेकर बदले में उनकी आर्थिक मदद करने का सिलसिला दिनोंदिन मजबूत हो रहा है। अब लगाम लगाने की आवश्यकता है। इस घटना की तह में जाकर पुलिस और भी लोगों को पकड़े तो यह कोई कठिन काम नहीं रह जाएगा। पुलिस के लिए यह चुनौती भी है। नक्सल-राजनीति गठजोड़ को तोडऩा लगातार प्रयासों से ही संभव हो सकता है। हजारीबाग जिले में यह जो उदाहरण तैयार हुआ है उससे दूसरे जिलों की पुलिस को भी प्रेरणा लेनी चाहिए। पुलिस मुख्यालय की निश्चित रूप से इसमें भूमिका रही होगी, आवश्यकता है कि इसके लिए अलग से गाइडलाइन जारी की जाए।

[ स्थानीय संपादकीय : झारखंड ]