एक ऐसे समय जब विपक्ष अपनी ताकत और एकजुटता का परिचय देने के लिए उपक्रम कर रहा है तब यह भी दिख रहा है कि एक के बाद एक विपक्षी दल अंदरूनी संकट से दो-चार हो रहे हैं। पता नहीं यह महज एक दुर्योग है या कुछ और, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि हाल के विधानसभा चुनावों में अपने गढ़ उत्तर प्रदेश में दयनीय प्रदर्शन करने वाली बहुजन समाज पार्टी तेजी के साथ कमजोर होती और बिखरती दिख रही है। बसपा के बड़े नेता नसीमुद्दीन सिद्दीकी ने पार्टी से निकाले जाने के बाद बसपा प्रमुख पर जो तमाम आरोप मढ़े और कथित प्रमाण के तौर पर ऑडियो टेप भी पेश किए उनकी गंभीरता का पता इससे चलता है कि उन्हें नकारने के लिए खुद मायावती तुरंत मीडिया के सामने आईं। उन्हें ऐसी ही तत्परता तब दिखानी पड़ी थी जब विधानसभा चुनाव के पहले उनके एक और भरोसेमंद नेता स्वामी प्रसाद मौर्य ने यकायक पार्टी छोड़ने की घोषणा कर दी थी। उनके बाद कई और नेताओं ने पार्टी छोड़ी, लेकिन मायावती यही प्रदर्शित करती रहीं कि वह दलित-मुस्लिम समीकरण के बल पर बेहतर प्रदर्शन करेंगी। मोदी लहर के चलते ऐसा बिल्कुल भी नहीं हुआ। तीसरे स्थान पर खिसक गई बसपा को इतनी सीटें भी नहीं मिलीं कि वह अपने किसी नेता को विधान परिषद या राज्यसभा भेज सके। नसीमुद्दीन बसपा के कद्दावर नेताओं में गिने जाने के साथ ही मायावती के बेहद करीबी भी माने जाते थे। वह पार्टी का मुस्लिम चेहरा होने के साथ ही दलित-मुस्लिम समीकरण का आधार भी थे।
यह सही है कि मायावती अपने नेताओं को दरवाजा दिखाने के लिए जानी जाती रही हैं, लेकिन लगता है कि वह यह देखने को तैयार नहीं कि धीरे-धीरे सारे पुराने साथी बाहर होते जा रहे हैं। बसपा संस्थापक कांशीराम के समय के नेता तो पहले ही किनारे किए जा चुके थे। अब खुद मायावती के साथ पार्टी को मजबूत करने वाले ऐसा नेता कम ही दिख रहे जो जनाधार के साथ अपनी पहचान भी रखते हों। मायावती को इससे चिंतित होना चाहिए कि बसपा दलित चेतना के आंदोलनकारी चेहरे वाले राजनीतिक दल की अपनी हैसियत तेजी से खो रही है। उन्होंने दलित-ब्राह्मण के सफल समीकरण के बाद दलित-मुस्लिम समीकरण का जो प्रयोग किया वह बुरी तरह नाकाम ही नहीं रहा, बल्कि दलित वोट बैंक भी पार्टी से छिटकता दिखा। लोकसभा चुनाव के बाद जिस तरह हाल के विधानसभा चुनाव में दलितों की कई जातियों का बसपा से मोहभंग होता दिखा उसके लिए मायावती खुद के अलावा अन्य किसी को दोष नहीं दे सकतीं। आज वह स्थिति नहीं कि कोई दल केवल कोरी बातें करके और सुनहरे सपने दिखाकर अपने समर्थकों को अपने साथ खड़ा रखने में सफल रहे। जितना यह सही है कि बसपा प्रमुख के तौर पर मायावती ने दलितों में राजनीतिक चेतना जगाई उतना ही यह भी कि उन्होंने तमाम आरोपों के बाद भी अपने तौर-तरीके बदलने से इन्कार किया। टिकट बेचने के आरोपों को खारिज करते समय उन्हें इस पर गौर करना चाहिए था कि आखिर आम जनता और यहां तक कि खुद दलित समुदाय के बीच धारणा क्या बन रही है? नसीमुद्दीन के आरोपों की अहमियत कुछ भी हो, बसपा के लिए वक्त अच्छा नहीं दिख रहा है।

[ मुख्य संपादकीय ]