अब जैसे-जैसे सारे काम-काज समेट कर वोट बटोरने का वक्त नजदीक आ रहा है, राज्य की हेमंत सरकार अपने पिटारे से एक से बढ़कर एक लोक लुभावन योजनाएं निकालकर बिखेर रही है। इस पर यदि वोट लट्टू हो जाए तो झामुमो-कांग्रेस और राजद की तिकड़ी वाली मिलीजुली सरकार की वापसी की राह बने अन्यथा खजाने पर बढ़ा बोझ अगली सरकार संभाले। यह इतनी पक्की योजना है, जिसमें खोने को कुछ भी नहीं, जो कुछ हासिल होगा, बोनस कहलाएगा।

पिछले मई में संपन्न लोकसभा चुनाव से लेकर हाल में पूरे हुए महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा तक की कहानी बता रही है कि इस बार झारखंड विधानसभा का चुनाव राजनीतिक रूप से पहले की अपेक्षा अधिक कठिन होगा। बुलंद हौसले से भाजपा मैदान में उतरेगी, जबकि यूपीए के पास कहने-दिखाने को वही रहेगा, जो कुछ उसने सवा साल में यहां बोया है। चुनाव की नई प्रवृत्तियां क्षेत्रीय दलों के अनुकूल नहीं लगतीं।

ताजा घटनाओं से चुनाव बिलकुल अप्रभावित रहेगा, यह सोचना खुद को धोखे में रखने के समान होगा। इसलिए हर प्रतिभागी को धरातल पर खड़ा होकर अपनी प्रतिबद्धता का प्रमाण देना पड़ेगा।

राज्य में मौजूद यूपीए के ढांचे के समक्ष परेशानी यही है कि उसको एक तरह से विषम परिस्थितियों में सत्ता संचालन के लिए सवा साल का ही समय मिला, जबकि हिसाब चौदह वर्षो का लिया जाएगा। उसका अपना तंत्र इस मायने में बहुत सक्षम नहीं कि वह केवल सवा साल की उपलब्धियां गिनाकर वोट अपनी ओर मोड़ ले।

एक तो इस गठबंधन की गांठें बहुत मजबूत नजर नहीं आतीं, दूसरे घटक दलों के अंदर आपसी खींचतान में भी कोई कमी नहीं। इन परिस्थितियों को भांपकर ही संभवत: सरकार अपने स्तर पर नागरिक सुविधाओं की झड़ी लगा रही है। वह बखूबी समझती है कि झारखंड में बेरोजगारी बहुत बड़ा अभिशाप है। इस कारण वह सामान्य ग्रामीण परिवेश से आने वाले परिवारों पर ध्यान अधिक केंद्रित कर रही है। वह जानती है कि इन परिवारों के सदस्यों को वह राजपत्रित पद दे नहीं सकती। इसलिए सिपाही आदि तृतीय श्रेणी की नौकरियों पर जोर दे रही है। यह काम उसने यदि आरंभिक दिनों से किया होता तो वोट के लिहाज से अधिक मुफीद रहता।

भविष्य की सरकारों के लिए यह नसीहत ही है कि पहले दिन से ही जनहित में काम करना आवश्यक है, अन्यथा अंत समय में हड़बड़ी में लिए गए निर्णय आलोचना के कारण बन जाते हैं।

(स्थानीय संपादकीय: झारखंड)