न्यायाधीशों की नियुक्ति की मौजूदा व्यवस्था यानी कोलेजियम में व्यापक बदलाव से इंकार कर सुप्रीम कोर्ट ने यही स्पष्ट किया कि न्यायाधीश अपने साथियों की नियुक्ति अपने हाथ में ही रखना चाहते हैं। यह लोकतंत्र एवं संविधान की भावना के अनुरूप नहीं। जब विश्व के प्रमुख लोकतांत्रिक देशों में न्यायाधीशों को अपने सहयोगियों की नियुक्ति का अधिकार नहीं है तो फिर भारत में ऐसा क्यों होना चाहिए? 22 साल पहले सर्वोच्च न्यायालय के एक फैसले के बाद कोलेजियम व्यवस्था अस्तित्व में आई थी। तभी से इस पर सवाल उठते रहे हैं- इसलिए और भी, क्योंकि संविधान यह नहीं कहता कि न्यायाधीशों की नियुक्तियां न्यायाधीश ही करें। पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने कोलेजियम के स्थान पर लाए गए राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग को यह कहकर खारिज कर दिया कि यह संविधान के मूल ढांचे के खिलाफ है। हो सकता है कि इस आयोग में कुछ खामियां हों, लेकिन खामियां तो कोलेजियम प्रणाली में भी हैं और इसकी स्वीकारोक्ति भी की जा चुकी है। इन स्थितियों में यह आवश्यक था कि कोलेजियम में ऐसे बदलाव हों जिससे न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया लोकतंत्र और संविधान की भावना के अनुरूप हो। सुप्रीम कोर्ट की ओर से कई महत्वपूर्ण मसलों में संविधान के मूल ढांचे का उल्लेख किया जा चुका है, लेकिन अभी तक यह स्पष्ट नहीं है कि यह मूल ढांचा क्या है और संविधान में कहां पर वर्णित है? यदि कोलेजियम में सुधार के नाम पर मामूली संशोधन तक ही सीमित रहा जाता है, जैसा कि जाहिर हो रहा है तो इससे बात बनने वाली नहीं है।

केवल इतने से संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता कि कोलेजियम प्रणाली में पारदर्शिता ले आई जाएगी और एक शिकायत निवारण तंत्र की स्थापना कर दी जाएगी। मूल प्रश्न न्यायाधीशों की नियुक्तियों का है। अन्य लोकतांत्रिक देशों की तरह भारत में भी न्यायाधीशों की नियुक्ति की ऐसी प्रणाली विकसित की जा सकती है जिससे न्यायपालिका की स्वतंत्रता भी बनी रहे और न्यायाधीशों की नियुक्तियों को लेकर विवाद भी न खड़े होने पाएं। जब संविधान के तीनों अंगों अर्थात न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका को मिलकर कार्य करना होता है तब फिर न्यायाधीशों की नियुक्तियों के मामले में कार्यपालिका और विधायिका की मूकदर्शक सरीखी भूमिका का कोई मतलब नहीं। नि:संदेह न्यायाधीशों की नियुक्ति की ऐसी किसी व्यवस्था की अपेक्षा नहीं की जानी चाहिए जिसमें कार्यपालिका और विधायिका की भूमिका प्रभावी हो जाए, लेकिन यह भी नहीं होना चाहिए कि उनकी कोई भूमिका दिखे ही नहीं। फिलहाल ऐसी ही स्थिति है। अभी तो सरकार की भूमिका न्यायाधीशों की नियुक्ति के मामले में कोलेजियम की ओर से भेजे गए नामों पर मुहर लगाने की ही होती है। बेहतर होगा कि कोलेजियम में सुधार का यह जो अवसर सामने आया है उसका पूरा-पूरा उपयोग किया जाए। इस अवसर का इस्तेमाल इस ढंग से किया जाना चाहिए कि न्यायाधीशों की नियुक्ति की एक पारदर्शी और विश्वसनीय व्यवस्था सामने आए। यह अच्छा नहीं कि न्यायाधीशों की नियुक्ति के तरीके को लेकर बार-बार सवाल उठते रहें और थोड़े-बहुत सुधार कर कर्तव्य की इतिश्री कर ली जाए।

[मुख्य संपादकीय]