सरकार कई सुविधाएं और छात्रवृत्ति सीधे बच्चों के खाते में देने की योजना बना रही है। ऐसे में बच्चों की राशि पर नजर गड़ाए लोगों की निगरानी नहीं हुई तो सरकार की मंशा धरी रह जाएगी।
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स्कूली विद्यार्थियों को प्रोत्साहित करने के लिए सरकार ने साइकिलें तो दीें लेकिन अधिकांश साइकिलें 'सामाजिक' भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गईं। सरकारी स्तर पर अनदेखी तो हुई ही। कुछ ने साइकिल की जगह मोबाइल ले ली तो कहीं सिलाई मशीन आ गई। लेकिन, अधिकांश मामलों में गड़बडिय़ां अभिभावकों के स्तर पर हुई और खेती-किसानी से लेकर रिश्तेदारी तक में राशि खर्च कर ली गई। सभी जानकारियां बातों-बातों में बाहर आई हैं और कहीं कोई प्रमाणित तथ्य नहीं है। लेकिन, सरकार तो साइकिल खोज रही है। वह साइकिल जो बच्चों को देनी थी। ऑडिट भी इन्हीं साइकिलों का हिसाब मांग रहा है। अब सार्वजनिक रूप से साइकिलों को सबके सामने लाने की कवायद की गई है ताकि गड़बडिय़ों से पर्दा हट सके।
विभाग की ओर अगस्त महीने में पंचायतों में कैंप लगाने का निर्देश पदाधिकारियों को दिया गया है। कैंप में संबंधित विद्यार्थियों को साइकिल के साथ उपस्थित रहना होगा। यहां साइकिल का भौतिक सत्यापन होगा। तैयारी की गई है कि साइकिल नहीं पाए जाने पर संबंधित विद्यार्थियों से साइकिल मद की राशि वसूली जाएगी।
दरअसल, पूरी योजना सातवीं कक्षा के बाद ड्रापआउट रोकने के उद्देश्य से तैयार हुई थी। आठवीं में नामांकित अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, पिछड़ी जाति और अल्पसंख्यक समुदाय के विद्यार्थियों को कल्याण विभाग की ओर से साइकिल दी जाती है। पहले टेंडर के माध्यम से साइकिल खरीदी जाती थी, जिसमें बड़े पैमाने पर अनियमितता उजागर होने के बाद बीते दो वर्षों से सरकार विद्यार्थियों के खाते में प्रति विद्यार्थी 3000 रुपये इस मद में डाल रही है। इधर संबंधित राशि से साइकिल के बदले मोबाइल, घड़ी समेत अन्य वस्तुएं खरीदे जाने की शिकायत कल्याण विभाग को कई स्रोतों से मिली है। विभाग ने सभी उपायुक्तों को 31 मई तक परियोजना निदेशकों, बैंक पदाधिकारियों और संबंधित पदाधिकारियों की बैठक करने तथा जून-जुलाई तक विद्यार्थियों का आधार और बैंक एकाउंट का डाटाबेस तैयार कर लेने को कहा है। कोशिश है कि दूध का दूध और पानी का पानी हो जाए। लेकिन समाज को भी सुधरना होगा। बच्चों के हिस्से का पैसा मारकर अभिभावक कैसे चैन से रह सकते हैं। सरकार तो अपनी राशि की सुरक्षा की कवायद में जुटी है लेकिन बदलाव की शुरुआत तो समाज को भी करनी चाहिए।

[ स्थानीय संपादकीय : झारखंड ]