हिमालय की गोद में बसे होना क्या कभी कोई अपराध हो सकता है? यकीनन नहीं। यह और बात है कि हिमालय के साथ होने के अपने लाभ हैं तो कुछ चुनौतियां भी। सुहाने मौसम में पर्यटकों के लिए पसंदीदा मंजिल बनने वाला हिमाचल प्रदेश हर बरसात में जख्म झेलता है और ये जख्म बहुत बार ऐसे होते हैं जिनका दर्द भले ही वक्त के साथ कम हो जाए लेकिन दाग नहीं मिटते। इस बरसात में भी यही हुआ है। सवाल यह है कि जब आपदाएं हिमाचल प्रदेश के हिसाब से अटल हैं तो क्यों नहीं इनके पूर्व प्रबंधन के लिए कदम उठाए जाते। पूर्व आपदा प्रबंधन में एक कदम यह भी है कि निर्माण ऐसे स्थानों पर न किए जाएं जहां आपदा का सीधा खतरा हो। धर्मपुर तो एक बानगी है जहां खड्ड का बहाव मोड़ कर बस अड््डा बना दिया गया। आपदा के एक सप्ताह बाद राजधानी में हुई प्राधिकरण की बैठक में यह आवाज भी उठी है कि धर्मपुर बस अड्डे का स्थन वहां क्यों चुना गया, इसकी जांच होगी। यह जांच स्वागतयोग्य होगी बशर्ते इसके निष्कर्ष समय रहते आ जाएं। लेकिन कई धर्मपुर और हैं वहां भी कार्रवाई होनी चाहिए क्योंकि नगर नियोजन या स्वविवेक का कोई अर्थ रह गया दिखता नहीं है। कई शहर ऐसे हैं जहां बेतरतीब निर्माण धड़ल्ले से हुआ है और कुछ स्थानों पर तो हो रहा है। बैठक से ही ये आदेश भी निकले हैं कि नालों तक का रुख मोडऩे वालों को नहीं बख्शा जाएगा। यह भी स्वागतयोग्य पहल होगी। यह समीचीन होगा कि सभी उपायुक्त 31 अगस्त को जो रपट प्रस्तुत करेंगे, उसके बाद पता लगा कर एक ऐसी रपट भी बनाएं कि कितने लोगों ने नालों पर कब्जा किया है। जांच ढंग से हो और साफ सुथरी रपट बने तो राष्ट्रीय राजमार्गों पर भी ऐसे कई मामले उभरने की संभावना है। इस सब के बीच केंद्र का रवैया अगर मदद न देने वाला हो तो हिमाचल के जख्मों पर मरहम के स्थान पर नमक ही छिड़का जाता है। बीती बरसात से हुए नुकसान की भरपाई की फाइलें अभी तक लंबित हैं। हिमाचल प्रदेश के शांत होने को इसकी कमजोरी के रूप में गिने जाने के आसार दिखने लगते हैं। प्रदेश के हर उस हिस्से में राहत पहुंचनी चाहिए जहां बरसात ने नुकसान पहुंचाया है। कठिन भौगोलिक परिस्थितियों में होने का एक अर्थ यह भी होता है कि राज्य को विशेष तवज्जो मिले।

[स्थानीय संपादकीय: हिमाचल प्रदेश]