नेशनल कांफ्रेंस के अध्यक्ष व राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री डॉ. फारूक अब्दुल्ला को राष्ट्रविरोधी बयान देने की आदत उनकी राजनीतिक मजबूरी कहा जाए तो इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। इस बार तो फारूक ने हुर्रियत कांफ्रेंस और अलगाववादियों की आजादी की मुहिम को समर्थन देते हुए सभी सीमाएं लांघ दी। नि:संदेह इस बयान के बाद जम्मू में राजनीतिक उबाल आया। कई संगठन सड़कों पर उतर आए और उन्होंने फारूक के पुतले फूंक कर अपने गुस्से का इजहार किया। फारूक अब्दुल्ला का इस तरह पहला विवादित बयान नहीं है, इससे पहले गुलाम कश्मीर पर उन्होंने यहां तक कह दिया था कि गुलाम कश्मीर किसी के बाप का नहीं है, ङ्क्षहदुस्तान की हिम्मत नहीं इसे वापस ले। ऐसे बयानों से पाकिस्तान को ही उल्टी शह मिलेगी कि अगर राज्य का पूर्व मुख्यमंत्री ऐसे बयान दे रहा है, तो वे इसे मुद्दा बनाने से भी बाज नहीं आएंगे। ऐसे बयान राज्य में विघटनकारी ताकतों की भी हौसलाफजाई करते हैं। फारूक को भी अब समझ आ गया है कि पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) की पकड़ कश्मीर घाटी में भाजपा के साथ मिलकर सरकार बनाने से कमजोर हुई है। उनकी कोशिश है कि किसी तरह घाटी के वोट बैंक में सेंध लगाई जाए। नेशनल कांफ्रेंस को जम्मू संभाग से मात्र तीन विधानसभा सीटें जीती थीं। फारूक अब्दुल्ला बेशक समझते होंगे कि उनकी पार्टी का अस्तित्व कश्मीर में है, इससे वे चंद लोगों को खुश कर लेंगे। लेकिन ऐसा नहीं कश्मीर के लोगों को पाकिस्तान का रवैया समझ आ चुका है। अभिव्यक्ति की आजादी होना ठीक है, लेकिन जिस अभिव्यक्ति में देशद्रोह की बू आ रही हो असहनीय है। इसके लिए फारूक अब्दुल्ला को अपना बयान वापस लेना चाहिए। वह यह भूल गए कि कश्मीर घाटी में देश की रक्षा करने के लिए अब तक हजारों जवानों ने अपनी शहादत दी है। जाहिर है कि फारूक अब्दुल्ला और हुर्रियत कांफ्रेंस की विचारधारा में कोई अंतर नहीं है। आतंकवाद का कोई मजहब नहीं होता। क्या फारूक अब्दुल्ला कश्मीर को लेकर भाजपा के एजेंडे को हाशिए पर लाने की कोशिश कर रहे हैं। अगर ऐसा है तो उन्हें समझ आ जाना चाहिए कि वोटर काफी होशियार होते हैं। राजनीति में कई बार ऐसे दाव उल्टे पड़ सकते हैं। इसलिए नेताओं को कोई भी बयान देने से पहले सोच समझ लेना चाहिए कि वे क्या बोल रहे हैं और इसका समाज पर क्या असर पड़ेगा।

[ स्थानीय संपादकीय : जम्मू-कश्मीर ]