तृणमूल सरकार के साढ़े चार वर्षों के शासन से बंगाल के लोग कितने खुश और कितने दुखी हैं, इसका आंकलन विधाननगर, आसनसोल, हावड़ा और सिलीगुड़ी मंडल पर्षद के चुनावी नतीजे से किया जा सकता है। मतदान हो चुका है और प्रत्याशियों की तकदीर इवीएम में बंद हो चुकी है। यह चुनाव प्रतिष्ठा के साथ-साथ कुछ माह बाद होने वाले विधानसभा चुनाव का लिटमस टेस्ट भी माना जा रहा है, इसलिए सभी दलों ने इसमें पूरी ताकत झोंकी थी। परंतु भाजपा, माकपा व कांग्रेस नेताओं का कहना है कि चुनाव कहां हुआ है। यह तो मजाक हुआ है। बाहरी लोगों को लेकर लगभग सभी बूथों पर कब्जा किया गया। मतदाताओं को वोट डालने नहीं दिया गया। तृणमूल को भय था कि वे लोग शायद नहीं जीत पाएंगे, इसलिए उन्होंने ङ्क्षहसा का सहारा लिया। वाममोर्चा के चेयरमैन विमान बोस ने चुनाव आयोग से विधाननगर, आसनसोल, बाली और सिलीगुड़ी में फिर से मतदान कराने की मांग की है। यही मांग कांग्रेस व भाजपा ने भी की है। दूसरी ओर तृणमूल के महासचिव पार्थ चटर्जी ने गड़बड़ी व मीडिया कर्मियों पर हमले के लिए माकपा, भाजपा व कांग्रेस को ही दोषी ठहराया है। विरोधियों का सवाल है कि अगर मुख्यमंत्री ममता बनर्जी व उनकी सरकार ने पिछले साढ़े चार वर्षों में अच्छा कार्य किया है तो लोग उन्हें वैसे ही पुन: निर्वाचित कर देंगे। फिर प्रतिष्ठा की लड़ाई बनाकर मतदान के लिए बाहरी लोगों व अपराधियों का सहारा क्यों? विभिन्न टीवी चैनलों पर प्रसारित खबरों से लोगों के मन में यह सवाल जरूर उठने लगा है कि कुछ तो गड़बड़ था, जिसके चलते ऐसा किया गया। स्वस्थ गणतंत्र में मतदाताओं को सरकार के कार्य-व्यवहार का मूल्यांकन करने की छूट मिलनी चाहिए। तभी पता चल सकेगा कि सुशासन है या कुशासन। पिछले 91 निकायों के चुनाव में भी तृणमूल पर गड़बड़ी के आरोप लगे थे लेकिन शनिवार को हुए मतदान में जिस तरह मीडिया कर्मियों को निशाना बनाया गया, उससे यही साबित हो रहा है कि कहीं न कहीं बड़ी गड़बड़ी हुई है। अब सबकी नजर मतगणना पर है। वैसे तो विरोधी दल पहले ही हार मान चुके हैं, इसीलिए तो पुनर्मतदान की मांग कर रहे हैं। जब मतगणना होगी तो असली बातें सामने आएगी। देखना होगा कि तृणमूल को कितनी सीटों पर जीत मिली है। ममता जिस तरह कहती आ रही हैं कि 34 वर्षों में वाममोर्चा ने जो किया, उसका कई गुना कार्य उन्होंने महज चार वर्षों में कर दिया है। फिर वह विरोधी दलों को आरोप लगाने का अवसर क्यों दे रही हैं? उन्हें जीत पर भरोसा था तो फिर केंद्रीय बलों की तैनाती में मतदान संपन्न क्यों नहीं कराया गया? यदि केंद्रीय बल तैनात रहता तो शायद 13 मीडिया कर्मी जख्मी नहीं होते। विभिन्न दलों के प्रत्याशी व मतदाता भी घायल नहीं होते।

[स्थानीय संपादकीय: पश्चिम बंगाल]