हाईलाइटर
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शराब पर पाबंदी की आवश्यकता तो दिख ही रही है। अब सवाल यह कि सरकार इसे कैसे लागू करेगी और इससे होनेवाले नुकसान की भरपाई कैसे होगी?
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पड़ोसी राज्य बिहार में शराबबंदी का असर अब सामने आने लगा है। सरकारी एजेंसियों का दावा है कि शराबबंदी से दुर्घटनाओं में कमी आई है तो अपराध के आंकड़े खासकर महिलाओं के उत्पीडऩ से संबंधित उदाहरण कम होने लगे हैं। दावों की हकीकत पर बहस संभव है लेकिन इसे नकारना कतई उचित नहीं। यही कारण है कि अब झारखंड में भी शराबबंदी एक अहम मुद्दा बनता जा रहा है। आध्यात्मिक गुरू श्रीश्री रविशंकर ने पिछले दो दिनों में दो बार झारखंड में शराबबंदी पर रोक की बात करके एक बार फिर इस मुद्दे को जिंदा कर दिया है। कुछ दिनों पूर्व स्वयं मुख्यमंत्री ने शराबबंदी की बात की थी और कहा था कि तरीका बिहार से कुछ अलग होगा। जो भी हो शराब पर पाबंदी की आवश्यकता तो दिख ही रही है। अब सवाल यह कि सरकार इसे कैसे लागू करेगी और इससे होनेवाले नुकसान की भरपाई कैसे होगी? आखिर शराब की बिक्री से सरकार को बड़े पैमाने पर राजस्व की प्राप्ति जो होती है।
झारखंड में पूरी तरह से शराबबंदी इतनी आसान भी नहीं। यहां शराब सिर्फ नशे के लिए नहीं बल्कि जीवन के तौर-तरीकों का एक अहम हिस्सा है। शहरों से लेकर सुदूर गांवों तक इसका चलन है। यहां तक कि लाखों की संख्या में ऐसे लोग हैं जिन्हें शराब बनाने में महारत हासिल है और लाख कानूनी पाबंदी के बावजूद गांव-घर में भी शराब का निर्माण हो ही जाता है। ग्रामीण स्तर पर शराब बनाने के लिए संसाधन भी आराम से उपलब्ध हो जाते हैं। ऐसे में सरकार के सामने सिर्फ कानून बनाने की नहीं, धरातल पर इसे उतारने की भी चुनौती है। वर्तमान परिस्थितियों में ऐसा प्रतीत होता है कि शराब पर पाबंदी धीरे-धीरे लगाना ही संभव होगा। तत्काल पूरी पाबंदी का मतलब कहीं न कहीं अवैध शराब के निर्माण को और बढ़ावा देगा। बिहार में ऐसा ही हो रहा है। वहां के लोग अच्छी तरह जान रहे हैं कि शराबबंदी के बावजूद नशे के अभ्यस्त लोगों को कहीं न कहीं से शराब उपलब्ध हो जा रही है। अचानक रोक लगाने से कुछ ऐसी ही स्थिति बन सकती है। पाबंदी लगाते हुए शराबबंदी का मार्ग अधिक कारगर साबित हो सकता है। और भी रास्ते हो सकते हैं लेकिन अहम बात यह कि सरकार इस मुद्दे को मुकाम पर पहुंचाए कैसे? अधिकारियों को मार्ग तलाशना होगा।

[ स्थानीय संपादकीय : झारखंड ]