विधानसभा चुनाव में प्रचार अभियान की कड़वाहट के लिए बिहार की बहुत बदनामी हुई थी। चुनाव के बाद उम्मीद जगी थी कि यह सिलसिला अब थम जाएगा, लेकिन दुखद है कि विभिन्न दलों के छोटे-बड़े नेता अभी भी उसी शैली में आरोप-प्रत्यारोप लगा रहे हैं। बेहद अफसोसजनक यह है कि इस मामले में बिहार कोटे के केंद्रीय मंत्री भी किसी से पीछे नहीं हैं। एक केंद्रीय मंत्री ने राज्य में सत्तारूढ़ महागठबंधन के दो शीर्षस्थ नेताओं को इंगित करके 'रंगा-बिल्ला' की उपाधि दे डाली। यह उपाधि पूरी तरह से असंसदीय है क्योंकि रंगा-बिल्ला कुख्यात अपराधी थे। उनका राजनीति से कोई लेना-देना नहीं था। इसी प्रकार हाल में कई अन्य वरिष्ठ नेताओं ने एक-दूसरे के बारे में कुछ ऐसी ही टिप्पणियां कीं। यह विचारणीय विषय है कि ऐसी टिप्पणियां करके ये नेता राज्य की जनता को क्या संदेश दे रहे हैं? शायद नेता भूल गए कि आम जनता राजनीतिक नेतृत्व को रोल मॉडल मानती है। अपने सदाचरण के लिए महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता, पं.जवाहर लाल नेहरू को चाचा नेहरू तथा कई अन्य राजनेताओं को इसी तर्ज पर आत्मीय संबोधन मिले, लेकिन मौजूदा दौर में कोई नेता आम आदमी से ऐसी आत्मीयता का हकदार नहीं दिखता। इसकी एकमात्र वजह नेताओं का आचरण और जीवनशैली है। इन्हीं हालात के चलते राजनीतिक क्षेत्र में दबंगों, कारोबारियों और अपराधियों का वर्चस्व बढ़ता जा रहा है क्योंकि अच्छी सोच रखने वाले लोग राजनीति को अपने लिए सही स्थान नहीं मानते। देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए यह अच्छा संकेत नहीं है।

बिहार अपने पिछड़ेपन के लिए भले ही बदनाम रहा है, लेकिन राजनीति के मामले में यह धरती श्रेष्ठ परंपराओं और बड़ी क्रांतियों की जननी रही। ऐसे राज्य में नेताओं की जुबान से एक-दूसरे के लिए गालीनुमा टिप्पणियां सुनना घोर यंत्रणादायी है। इस मामले में पतन का आलम यह है कि नेताओं को पदों की मर्यादा का भी ध्यान नहीं है। दलीय राजनीति में उत्तेजना और आरोप-प्रत्यारोप स्वाभाविक हैं, लेकिन शब्दों का अनुशासन किसी भी कीमत पर भंग नहीं किया जाना चाहिए। नेताओं को यह भी होश नहीं कि प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री के पद व्यक्तियों से बड़े होते हैं। ऐसे पदों पर आसीन व्यक्तियों को असंसदीय उपाधियों से नवाजना किसी भी तरह सही नहीं ठहराया जा सकता। विधानसभा चुनाव में नेताओं ने जुबान के मामले में सारी मर्यादाएं ताक पर रख दी थीं। चुनाव प्रचार में दिग्गज नेताओं ने जिन शब्दों और शैली का चयन किया था, उसकी नजीर देश के राजनीतिक इतिहास में अन्यत्र नहीं मिलती। दुर्भाग्यपूर्ण है कि नेताओं ने उन बातों से कोई सबक नहीं सीखा, और अभी भी वही सिलसिला जारी है। दरअसल, जब राजनीति वैचारिक आधार खो देती है, तब राजनीतिक कार्यकर्ता ऐसा आचरण करने लगते हैं। ये घटनाएं संकेत देती हैं कि राजनीति किस हद तक वैचारिक दीवालियेपन की शिकार हो चुकी है। राजनीतिक दलों में कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षण की परिपाटी बंद हो चुकी है। हर नेता शार्टकट तलाश रहा है। बदजुबानी इसी शोध का कुफल है। इस मामले में सभी राजनीतिक दलों को अपने लिए आचार संहिता बनानी चाहिए, ताकि गांधी-नेहरू और भगत-तिलक की राजनीतिक परंपरा मौजूदा दौर की घटिया शैली के आगे सिर्फ इतिहास में कैद होकर न रह जाए।

[ स्थानीय संपादकीय : बिहार ]