जीएसएलवी मार्क-3 के सफल प्रक्षेपण के साथ भारत का नाम उन चंद देशों में शामिल हो गया जो भारी-भरकम रॉकेट प्रक्षेपित करने में कामयाब रहे हैं। करीब 13 मंजिली इमारत जितने ऊंचे और 640 टन वजन वाले इस रॉकेट के जरिये लगभग तीन टन के संचार उपग्र्रह को अंतरिक्ष में तय स्थान पर स्थापित किया गया। इस कामयाबी का महत्व इसलिए कहीं अधिक है, क्योंकि अभी तक भारत को 2300 किलो से अधिक वजन वाले संचार उपग्र्रहों के लिए दूसरे देशों पर निर्भर रहना पड़ता था। इस संचार उपग्रह से डिजिटल भारत के अभियान को गति देने में मदद मिलेगी। इस सफलता ने न केवल दूसरे देशों पर निर्भरता खत्म की है, बल्कि अंतरिक्ष तकनीक के बाजार में इसरो का कद भी बढ़ाया है। अब तक के सबसे वजनी रॉकेट और उपग्र्रह के प्रक्षेपण के साथ ही भारत ने चांद पर मानव भेजने के अपने अभियान को भी बल प्रदान करने का काम किया है। इसरो की ताजा कामयाबी का सबसे खास पहलू यह है कि जिस क्रायोजेनिक इंजन के सहारे सबसे वजनी रॉकेट को प्रक्षेपित किया गया वह स्वदेशी तकनीक पर आधारित है। इसके पहले भारत ने रूस से यह इंजन हासिल करने की कोशिश की थी, लेकिन अमेरिका ने उस पर न केवल अडं़गा लगाया, बल्कि ऐसे कदम भी उठाए जिससे भारत किसी भी देश से यह इंजन न ले सके। आखिरकार भारतीय वैज्ञानिकों ने उसे खुद तैयार कर लिया। यह संभव हो पाया उन्नत से उन्नत तकनीक में आत्मनिर्भर होने की लगन से। दरअसल इसी जज्बे ने इसरो को प्रतिष्ठा के ऊंचे पायदान पर स्थापित किया है। आज दुनिया में जिन कामयाब संस्थाओं से भारत की प्रतिष्ठा में चार चांद लगते हैं उनमें भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन शीर्ष पर है। बहुत दिन नहीं हुए जब इसरो ने एक साथ एक सौ चार उपग्रह छोड़कर दुनिया को चकित किया था। इसके पहले इसरो की कीर्ति ध्वजा मंगल अभियान की सफलता के दौरान फहराई थी।
इसरो की एक के बाद एक कामयाबी तकनीक के साथ अंतरिक्ष विज्ञान में भारत की श्रेष्ठता को रेखांकित करती है। यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि जैसी कामयाबी इसरो अपने नाम लिखने में सक्षम है वैसी ही अन्य तकनीकी और वैज्ञानिक संस्थाए क्यों नहीं लिख पा रही हैं? इस मामले में रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन अर्थात डीआरडीओ का खास तौर पर जिक्र होना सहज है। आखिर उन्नत लड़ाकू विमान, टैंक, पनडुब्बी आदि का देश में ही निर्माण करने के मामले में भारत इतना पीछे क्यों है? यह कोई संतोष का विषय नहीं कि एक अदद लड़ाकू विमान बनाने में दशकों खप गए। यदि भारत वास्तव में महाशक्ति बनने का इरादा रखता है तो उसे रक्षा सामग्र्री का सबसे बड़ा खरीददार नहीं, बल्कि उत्पादक बनना चाहिए। कम से कम इतना तो होना ही चाहिए कि सामान्य हथियारों के मामले में हम अन्य देशों पर निर्भर न रहें। नि:संदेह बात केवल रक्षा सामग्र्री की ही नहीं, आधुनिक तकनीक आधारित अन्य उपकरणों और मशीनों की भी है। बेहतर हो कि हमारे नीति-नियंता इसरो की कामयाबी पर गर्व करने के साथ ही इस पर विचार भी करें कि अन्य तकनीकी-वैज्ञानिक संस्थान उसकी बराबरी करने में सक्षम क्यों नहीं? कामयाबी के सफर में एक अकेला इसरो ही क्यों?

[  मुख्य संपादकीय ]