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नाकाम नेतृत्व

By Edited By: Published: Tue, 25 Dec 2012 04:16 AM (IST)Updated: Tue, 25 Dec 2012 04:33 AM (IST)
नाकाम नेतृत्व

दिल्ली में सामूहिक दुष्कर्म की झकझोर देने वाली घटना के सात दिन बाद प्रधानमंत्री ने राष्ट्र को संबोधित कर आम जनता के गुस्से को शांत करने की जो कोशिश की उसमें उन्हें शायद ही कामयाबी मिले। एक तो प्रधानमंत्री ने अपनी बात कहने में बहुत देर कर दी और दूसरे उनके संबोधन में भावुक अपील के अतिरिक्त ऐसा कुछ नहीं जिससे जनता को यह भरोसा हो सके कि सरकार वास्तव में चेत गई है और अब वह आम महिलाओं को सुरक्षा देने अथवा उनके मान-सम्मान से खेलने वाले तत्वों को दंडित करने के लिए सभी आवश्यक उपाय करेगी। आज जिन अनेक उपायों की चर्चा हो रही है वे कोई नए नहीं हैं, लेकिन कोई नहीं जानता कि इसके पहले उन्हें कोई तवज्जो क्यों नहीं दी गई? दिल्ली में सामूहिक दुष्कर्म की जिस घटना ने देश को शर्मिदा करने के साथ आम लोगों को आक्रोश से भर दिया वैसी घटनाएं इसके पहले भी हो चुकी हैं। इनमें से कई तो राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित हुईं और चिंता का विषय भी बनीं, लेकिन राजनीतिक और शासक वर्ग अविचलित ही बना रहा। अब वह सक्रिय अवश्य दिख रहा है, लेकिन यह साफ है कि इसका मूल कारण तिलमिलाई जनता का सड़कों पर उतर आना और उग्र रूप धारण कर लेना है। क्या हमारे नीति-नियंता इसी दिन और ऐसे माहौल की ही प्रतीक्षा कर रहे थे? कोई गंभीर घटना घट जाने और उसके परिणामस्वरूप लोगों के आक्रोशित हो उठने पर चेतने वाले नीति-नियंता अपनी विश्वसनीयता कायम नहीं कर सकते। दुर्भाग्य यह है कि ऐसा प्रत्येक मामले में होता है। उदाहरणस्वरूप जब कभी ऑनर किलिंग के मामले बढ़ जाते हैं तो ऐसा जाहिर किया जाता है कि अब सरकार के स्तर पर ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए कुछ न कुछ कदम उठा ही लिए जाएंगे, लेकिन चंद दिनों में ही उसकी तमाम सक्रियता दम तोड़ देती है।

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जब लोकपाल के खिलाफ जनता सड़कों पर थी तो लग रहा था कि पक्ष-विपक्ष के नेता मिलकर भ्रष्टाचार के खिलाफ कोई कठोर कानून बनाकर ही रहेंगे, लेकिन अंतत: कुछ नहीं हुआ। उनकी सारी प्रतिबद्धता खोखली और दिखावटी निकली। कालेधन के मुद्दे का भी ऐसा ही हश्र हुआ। आखिर ऐसा राजनीतिक नेतृत्व किस काम का जो समस्याओं का समाधान करने के बजाय उन्हें ठंडे बस्ते में डालने का काम करे? इस मामले में पक्ष-विपक्ष का हाल एक जैसा है। दोनों का व्यवहार प्रतिक्रियावादी नजर आता है। यदि यह मान लिया जाए कि सत्तापक्ष पुलिस सुधारों और महिलाओं की सुरक्षा से जुड़े प्रस्तावित कानूनों को लेकर हाथ पर हाथ धरे बैठा था तो फिर सवाल यह उठेगा कि विपक्ष क्या कर रहा था? चूंकि यह कोई नहीं जानता कि हमारा राजनीतिक नेतृत्व देश को वास्तविक नेतृत्व देने के लिए कब सजग-सक्रिय होगा इसलिए आम जनता को अपने स्तर पर समाज सुधार का बीड़ा उठाना होगा। महिलाओं के प्रति अपराध रोकने और तमाम सामाजिक कुरीतियों को खत्म करने के लिए आम आदमी को एक जिम्मेदार नागरिक की तरह से अपने कर्तव्य का निर्वहन करना होगा। वैसे भी सभ्य समाज का निर्माण न तो केवल कानूनों के बल पर हो सकता है और न ही राजनीतिक नेतृत्व पर आश्रित रहकर। यह सही समय है जब समाज अपने हिस्से का काम करे अर्थात अपनी मानसिकता बदले।

[मुख्य संपादकीय]

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