लोकपाल का भविष्य
आखिरकार लोकपाल विधेयक संसद में पेश हो गया, लेकिन यह कहना कठिन है कि वह पारित भी हो जाएगा। फिलहाल ऐसे आसार इसलिए नहीं नजर आ रहे हैं, क्योंकि सत्तापक्ष को छोड़कर लगभग सभी दलों को उसके किसी न किसी प्रावधान पर आपत्ति है। कोई प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में रखने के खिलाफ है तो कोई इसे आधा-अधूरा या फिर संविधान विरोधी बता रहा है। इसी तरह सीबीआइ को लोकपाल के तहत लाने-न-लाने के बारे भी अलग-अलग दलों की भिन्न-भिन्न राय है। कुछ दलों के विचारों से तो यह भी ध्वनित हो रहा है कि उनका एक मात्र उद्देश्य लोकपाल जैसी व्यवस्था का निर्माण ही न होने देना है। सबसे ज्यादा विवाद लोकपाल में आरक्षण को लेकर है और इसके लिए सरकार ही जिम्मेदार है। एक ओर वह लोकपाल को संवैधानिक दर्जा देने की तैयारी कर रही है और दूसरी ओर यह जानते हुए भी उसमें आरक्षण ले आई कि अभी तक ऐसी संस्थाएं आरक्षण से बची हुई हैं। लोकपाल में जिस तरह आरक्षण का समावेश किया गया उससे तो यह लगता है कि वह दिन दूर नहीं जब चुनाव आयोग और न्यायपालिका में भी आरक्षण लागू हो जाएगा। वैसे भी इसकी मांग तेज हो गई है। यह जितना विचित्र है उतना ही निराशाजनक भी कि एक मजबूत लोकपाल व्यवस्था बनाने की मुहिम आरक्षण के सवाल से बाधित होती दिख रही है। इससे दुर्भाग्यपूर्ण और कुछ नहीं हो सकता कि जो लोकपाल 43 साल में संसद की देहरी नहीं लांघ सका उसमें आरक्षण के प्रावधान कुछ माह की कोशिश के बाद ही नत्थी हो गए। आखिर उद्देश्य लोकपाल के जरिये भ्रष्टाचार से लड़ना है या फिर उसमें सभी वर्गो को आरक्षण देना?
सरकार ने जिस तरह यह सुनिश्चित किया कि लोकपाल के आधे सदस्य आरक्षित वर्गो के होंगे उससे तो यह लगता है कि लोकपाल का काम भ्रष्टाचार से लड़ना नहीं, बल्कि भाईचारा समिति बनाकर सामाजिक सद्भाव की अलख जगाना है। आखिर सरकार यह साबित करने की कोशिश क्यों कर रही है कि यदि लोकपाल के आधे सदस्य आरक्षित वर्ग के नहीं होंगे तो अनुसूचित जाति-जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्गो, महिलाओं और अल्पसंख्यक समुदाय को भ्रष्टाचार से मुक्ति नहीं मिलेगी? क्या इससे बड़ी विडंबना और कोई हो सकती है कि लोकपाल सदस्यों का चयन उनकी योग्यता, निष्ठा के साथ-साथ इस आधार पर भी होगा कि वे किस जाति, वर्ग के हैं? लोकपाल विधेयक के जरिये सरकार ने आरक्षण को एक नया आयाम भी दिया है। वह कुछ विपक्षी दलों के दबाव में आनन-फानन मजहब आधारित आरक्षण के लिए भी तैयार हो गई, जबकि संविधान इसका निषेध करता है। माना कि कुछ राज्यों के विधानसभा चुनाव नजदीक हैं और तमाम दलों को अल्पसंख्यक वोट बैंक की चिंता सता रही है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि संविधान ताक पर रख दिया जाए। संविधान की भावना के खिलाफ काम करना और फिर यह तर्क देना एक कुतर्क ही है कि संवैधानिक-असंवैधानिक स्वरूप देखना न्यायपालिका का कार्य है। यह हास्यास्पद है कि जिस लोकपाल विधेयक से सत्ताधारी दलों को छोड़कर कोई संतुष्ट नहीं उसे सबसे अच्छा बताया जा रहा है। इसमें संदेह है कि यह कथित अच्छा विधेयक कानून का रूप ले सकेगा और उससे भ्रष्टाचार पर कोई प्रभावी लगाम लग सकेगी।
[मुख्य संपादकीय]
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