असाधारण लड़ाई
भ्रष्टाचार के खिलाफ और विशेष रूप से लोकपाल व्यवस्था को मजबूत बनाने के लिए गांधीवादी समाजसेवी अन्ना हजारे की ओर से छेड़े गए आंदोलन को मिल रहा व्यापक समर्थन खुद ही यह स्पष्ट कर देता है कि आम जनता को इस पर यकीन नहीं कि केंद्रीय सत्ता भ्रष्टाचार पर रोक लगाने के मामले में गंभीर है। यह जितना शर्मनाक है उतना ही हास्यास्पद भी कि पिछले चार दशक से लोकपाल विधेयक कानून का रूप नहीं ले पा रहा है। इसका सीधा अर्थ है कि राजनीतिक दल लोकपाल व्यवस्था बनाने के लिए तैयार नहीं। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 2004 में केंद्र की सत्ता संभालते समय लोकपाल व्यवस्था बनाने का वायदा किया था, लेकिन उनकी सरकार का एक कार्यकाल गुजर गया और उन्हें अपने वायदे की याद नहीं आई। दूसरे कार्यकाल में लोकपाल विधेयक तब सतह पर आया जब घपलों-घोटालों के कारण सरकार को चेहरा छिपाना मुश्किल हो गया। भले ही सरकार लोकपाल विधेयक को शीघ्र ही पारित कराने की बात कह रही हो, लेकिन इस विधेयक का मसौदा इतना लचर है कि इस नतीजे पर पहुंचने के अलावा और कोई उपाय नहीं कि केंद्रीय सत्ता के इरादे नेक नहीं। इस मसौदे से इसकी पुष्टि होती है कि सरकार नख-शिख-दंत विहीन लोकपाल बनाना चाहती है। उसके ऐसे रवैये के खिलाफ लोगों का आक्रोशित होना स्वाभाविक है। भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने के मामले में केंद्रीय सत्ता के इरादों के प्रति संदेह उपजने का एक अन्य कारण यह भी है कि अन्ना हजारे के आंदोलन छेड़ते ही उसकी ओर से सबसे पहले उन्हें लांछित करने की कोशिश की गई। उन्हें उतावला और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का एजेंट बताया गया। जब इससे दाल नहीं गली तो उनके तरीके को गलत सिद्ध करने की कोशिश की गई। यही नहीं उनके खिलाफ यह दुष्प्रचार करने की भी कुचेष्टा की गई कि इस तरीके से तो संवैधानिक व्यवस्था ही खत्म हो जाएगी।
क्या घोटालेबाज मंत्री ए.राजा का बचाव करने, दागी पीजे थॉमस को चरित्र प्रमाण देने और काले धन के सबसे बड़े कारोबारी के खिलाफ जांच के नाम पर देश की आंखों में धूल झोंकने से भारतीय लोकतंत्र और संविधान पर चार चांद लग रहे थे? क्या भ्रष्ट अफसरों के खिलाफ मुकदमा चलाने की अनुमति देने से इंकार करने और सीबीआइ का मनमाना इस्तेमाल करने से विधि के शासन की गरिमा बढ़ रही है? यदि अन्ना हजारे यह चाह रहे हैं कि लोकपाल ंिवधेयक के लिए नया मसौदा बने और उसे तैयार करने में जनता की भी भागीदारी तो आखिर सरकार ऐसा क्यों प्रदर्शित कर रही है कि ऐसा करने से आसमान टूट पड़ेगा? यह मांग तो इसलिए की जा रही है, क्योंकि लोकपाल व्यवस्था का निर्माण करने के नाम पर पिछले 42 वर्षो से देश के साथ धोखा किया जा रहा है। यह असाधारण मामला है और जब असाधारण परिस्थितियां हों तो फिर सामान्य तौर-तरीकों का परित्याग करने में कोई हर्ज नहीं। यदि अन्ना हजारे का तरीका गलत है तो फिर सरकार उनसे बात कर उनका अनशन खत्म कराने के लिए क्यों आतुर है? यदि अन्ना हजारे के पीछे कथित तौर पर चंद स्वार्थी लोग ही हैं तो फिर क्या कारण है कि शरद पवार मैदान छोड़ गए? अन्ना हजारे के तौर-तरीकों पर ध्यान केंद्रित करने वाली केंद्रीय सत्ता उनकी भावना को समझने के लिए क्यों तैयार नहीं? उनकी भावना यही है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ वास्तव में ठोस कार्रवाई हो। यही भावना सारे देश की भी है और इसीलिए अन्ना का अभियान गति पकड़ता जा रहा है।
[मुख्य संपादकीय]
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