खराब नजरिया
भारत सरकार देश-दुनिया को स्तब्ध करने वाले दिल्ली के दुष्कर्म कांड पर बनी डाक्यूमेंट्री फिल्म के प्रस
भारत सरकार देश-दुनिया को स्तब्ध करने वाले दिल्ली के दुष्कर्म कांड पर बनी डाक्यूमेंट्री फिल्म के प्रसारण को रोकने में एक हद तक ही कामयाब रही। जब तक वह सक्रिय होती तब तक बीबीसी ने चतुराई दिखाते हुए इस फिल्म का प्रसारण कर दिया और फिर वह इंटरनेट पर भी आ गई। पाबंदी के बाद भी उसे इंटरनेट पर देखा जा सकता है और लोग उसे देख भी रहे हैं। शायद इसलिए और भी, क्योंकि पाबंदी ने उत्सुकता बढ़ा दी है। लोग फिल्म देखकर क्या संदेश ग्रहण कर रहे हैं, इससे ज्यादा अहम सवाल यह है कि आखिर क्या सोचकर बीबीसी को डाक्यूमेंट्री बनाने की इजाजत दी गई? पता नहीं तत्कालीन सरकार के नीति-नियंताओं ने यह बुनियादी बात जानने की जरूरत क्यों नहीं समझी कि डाक्यूमेंट्री को किस नजरिये और मकसद से बनाया जा रहा है? खराब बात यह भी हुई कि जब फिल्म बन गई और सनसनीखेज तरीके से उसका प्रचार शुरू हो गया तब पता चला कि उसके निर्माण से संबंधित शर्तो का उल्लंघन हुआ। डाक्यूमेंट्री बनाने वालों की ओर से जिस तरह यह कहा गया कि वे उसके जरिये महिलाओं के प्रति पुरुषों का नजरिया सामने लाना चाहते हैं वह घोर आपत्तिाजनक है, क्योंकि उसमें तो दुष्कर्म करने वालों के नजरिये को ही प्रमुखता से सामने रखा गया है। वे बिना संकोच और पछतावे के दरिंदगी को बयान करते हैं। उनके साथ-साथ उनके वकील भी अपनी भद्दी सोच सामने रखते हैं। यदि चंद ऐसे लोगों के जरिये यह बताने की कोशिश हो रही है कि यही है भारतीय समाज का सच तो यह देश के साथ-साथ यहां के लोगों की छवि को मलिन करने वाला कृत्य है।
दुष्कर्मियों की सोच को पूरे समाज की सोच से जोड़ने की कोशिश शरारत भी है और पेशेगत नैतिकता का उल्लंघन भी। यह ठीक नहीं कि एक घृणित अपराध में शामिल अपराधियों के नजरिये को सामने रखकर यह कहने की कोशिश की जाए कि ऐसे ही रवैये के कारण भारत में महिलाओं की ऐसी स्थिति है। इस पर भी ध्यान दें कि इस डाक्यूमेंट्री को महिला दिवस के दिन प्रसारित करने की योजना थी। यह ठीक नहीं कि एक समय पत्रकारिता के अपने उसूलों के कारण जाना जाने वाला बीबीसी आज उनसे समझौता करता दिख रहा है। डाक्यूमेंट्री पर पाबंदी लगाने के निर्णय को लेकर देश-विदेश में बहस छिड़ गई है। पाबंदी से असहमत लोग सवाल उठा रहे हैं कि क्या फिल्म को न दिखाए जाने से भारत में दुष्कर्म रुक जाएंगे? नि:संदेह ऐसा नहीं होने वाला, लेकिन उसे दिखाए जाने से भी दुष्कर्म थमने वाले नहीं हैं, क्योंकि यह फिल्म पूरे घटनाक्रम को सही परिप्रेक्ष्य में पेश ही नहीं करती। बेहतर हो कि सरकार और साथ ही इस फिल्म के समर्थक-विरोधी इस पर विचार करें कि कैसे देश में महिलाओं के प्रति लोगों की सोच बदले? इसकी आवश्यकता इसलिए है, क्योंकि तमाम चेतना और जागरूकता के बावजूद भारत में महिलाओं को दोयम दर्जे के नागरिक के तौर पर देखा जाता है। यह सोच समाज के सभी तबकों में है और इसी कारण महिलाएं पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलती हुई नहीं दिखाई देती हैं। अच्छा यह होगा कि दुष्कर्मियों और उनके वकीलों की सोच को दिखाने वाली फिल्म पर बहस करने के बजाय इस पर गौर किया जाए कि महिलाओं के प्रति आम भारतीयों की सोच कैसे सकारात्मक हो।
[मुख्य संपादकीय]