आप में घमासान
प्रबल बहुमत के साथ दिल्ली की सत्ता में आई आम आदमी पार्टी में जैसा घमासान छिड़ा उससे नई तरह की राजनीति
प्रबल बहुमत के साथ दिल्ली की सत्ता में आई आम आदमी पार्टी में जैसा घमासान छिड़ा उससे नई तरह की राजनीति करने के उसके दावे पर सवालिया निशान लग गए हैं। इस घमासान के चलते पार्टी के दो प्रमुख नेताओं योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण को जिस तरह किनारे किया गया उससे उसके समर्थकों का निराश होना स्वाभाविक है। अरविंद केजरीवाल आम आदमी पार्टी का चेहरा भी हैं और सबसे बड़ी ताकत भी। यदि यह दल लोकसभा चुनाव में बुरी तरह मात खाने के सात महीने बाद दिल्ली की सत्ता हासिल करने में समर्थ रहा तो इसका श्रेय अरविंद केजरीवाल के खाते में ही जाएगा। उनके नाम पर ही आम आदमी पार्टी को प्रचंड बहुमत मिला। फिलहाल केजरीवाल के बगैर आम आदमी पार्टी की कल्पना भी नहीं की जा सकती। इस सबके बावजूद यह भी नहीं कहा जा सकता कि योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण का कोई योगदान नहीं और उन्हें किनारे किए जाने से पार्टी की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ने वाला। इन दोनों नेताओं को जिस तरह एक झटके में हाशिये पर ठेल दिया गया उससे देश-दुनिया में यही संदेश गया है कि अन्य दलों की तरह इस दल में भी असहमति जाहिर करने और सवाल उठाने वालों के लिए कोई जगह नहीं है। यह ठीक है कि राजनीतिक दलों के बनने-संवरने की एक प्रक्रिया होती है और इस प्रक्रिया में मुश्किल दौर भी आते हैं, लेकिन यह अजीब है कि करीब दो साल पुरानी इस पार्टी से एक-एक कर उसके प्रमुख नेता बाहर होते जा रहे हैं। यह शुभ संकेत नहीं कि पिछले दो सालों में कई ऐसे चेहरे पार्टी से अलग हो चुके हैं या किनारे जा लगे हैं जो उसके संस्थापक सदस्य रहे।
फिलहाल यह कहना कठिन है कि योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण का ऐसा हश्र क्यों हुआ, लेकिन ऐसा लगता है कि ये दोनों नेता पार्टी के तौर-तरीकों से असहमत होने के साथ-साथ इससे भी परेशान थे कि केजरीवाल का कद बढ़ता चला जा रहा है और उनके मुकाबले उनकी ज्यादा पूछ-परख नहीं हो रही है। इसके भी संकेत मिल रहे हैं कि अविश्वास की जड़ें काफी पहले से पनप रही थीं, क्योंकि आपस में बातचीत होने के स्थान पर चिट्ठियों और मीडिया के जरिये संवाद हो रहा था। इस विचित्र स्थिति के लिए दोनों ही पक्ष उत्तारदायी हैं। इधर योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण के सवाल मीडिया में आ रहे थे और उधर मीडिया के जरिये ही पार्टी के अंदर से उन पर जवाबी हमले हो रहे थे। जब यह सब हो रहा था तब केजरीवाल मौन थे। कई दिनों बाद उनकी चुप्पी टूटी, लेकिन वह केवल यह कहने तक सीमित रहे कि जो कुछ हो रहा है उससे वह दुखी हैं। भले ही योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण को किनारे किए जाने के फैसले में केजरीवाल शामिल न रहे हों, लेकिन वह जवाबदेही से बच नहीं सकते। उनके संयोजक पद से उस इस्तीफे का भी कोई मूल्य नहीं जिसके बारे में पहले से स्पष्ट था कि वह अस्वीकार हो जाना है। नि:संदेह आम आदमी पार्टी एक नया संदेश और उम्मीद लेकर आई है, लेकिन वह जिस तरीके से आगे बढ़ रही है उससे यह अंदेशा हो रहा है कि कहीं वह एक सामान्य दल में न तब्दील हो जाए? इस अंदेशे को केवल केजरीवाल ही दूर कर सकते हैं।
[मुख्य संपादकीय]