अधिकारियों की कमी
अधिकारियों की कमी से जूझ रहे उत्तराखंड सरकार इस विषय में केंद्र से भी आग्रह कर चुकी है, लेकिन हैरत य
अधिकारियों की कमी से जूझ रहे उत्तराखंड सरकार इस विषय में केंद्र से भी आग्रह कर चुकी है, लेकिन हैरत यह है कि राज्य में प्रोविंशियल सिविल सर्विस के पांच सौ से ज्यादा पद रिक्त हैं। बावजूद इसके इन पदों पर नियुक्तियां करने में सरकारी रवैया लुंजपुंज नजर आ रहा है। पीसीएस-2010 की प्रक्रिया वर्ष 2012 में शुरू हुई और अगस्त 2014 में इसे अंतिम रूप दिया गया। इसके तहत चुने गए 229 अभ्यर्थी अभी तक तैनाती का इंतजार कर रहे हैं। शासन का कहना है कि सत्यापन प्रक्रिया शुरू कर दी गई है और जल्द ही नए अफसरों को तैनाती दे दी जाएगी। ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि जब एक परीक्षा की प्रक्रिया पूरी होने में चार साल से ज्यादा का वक्त लग गया तो इन हालात में अधिकारियों की कमी कैसे पूरी होगी। सरकार अपने अधिकार क्षेत्र में कार्यो को क्यों रफ्तार नहीं दे पा रही है। निश्चिततौर पर अधिकारियों के न होने से विकास कार्य प्रभावित हो रहे हैं। सरकार की योजनाओं को लागू करने में यह एक बड़ा अड़ंगा है। हालत यह है कि प्रदेश में कार्य कर रहे कई अधिकारी दूसरे दायित्व भी संभाल रहे हैं। कार्य के बोझ तले दबे ऐसे अफसर विकास कार्यो को कैसे गति दे पाएंगे, इसका अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। आपदा प्रभावित राज्य में यह एक नाजुक दौर है। सीधे प्रभावित जिलों में तो हालात दुष्कर हैं ही, परोक्ष रूप से समूचा राज्य ही प्रभावित हुआ है। जाहिर है प्रदेश को क्षमतावान और कर्मठ अधिकारियों की जरूरत है। बात चाहे प्रशासनिक जिम्मेदारियों की हो या कानून व्यवस्था बनाए रखने की, हर जगह हालात गंभीर नजर आते हैं। मसलन, पीसीएस -2010 से चुने गए अधिकारियों में से 19 एसडीएम, पांच पुलिस उपाधीक्षक और 84 शिक्षाधिकारियों को तैनाती दी जानी है। वहीं, पीसीएस 2012 से एसडीएम के 16, पुलिस उपाधीक्षक के 21 और खंड विकास अधिकारी के 32 पद भरे जाने हैं। यह तो एक बानगी भर है, वास्तविकता में यह कमी और भी अधिक है। अब यह सरकार का दायित्व है कि हकीकत को समझते हुए इस दिशा में कदम उठाए। इसके लिए पहली आवश्यकता है राज्य लोक सेवा आयोग के सिस्टम को ढर्रे पर लाने की। आयोग जिन परीक्षाओं का संचालन करता है, उन्हें तय समय पर करे, निर्धारित वक्त पर परिणाम घोषित हों। कहने का आशय यह कि परीक्षा का कार्यक्रम बिना विलंब के पूरा किया जाना चाहिए। शासन को भी चाहिए आयोग को अपने दायित्व के निर्वहन में किसी तरह की दिक्कत न आए। दरअसल, समस्याओं से निपटने के लिए एक्शन की जरूरत है, न कि उबासियां लेते हुए उन्हें गिनाने की।
[स्थानीय संपादकीय: उत्तराखंड]