मनुष्य अक्सर कभी अपनों और कभी परायों से घिरा रहता है। सचमुच यह पहचानना मुश्किल है कि कौन अपना और कौन पराया है? ऐसा इसलिए, क्योंकि अपने और पराये के बीच ऐसी रेखा खिंची होती है कि इन दोनों के बीच का अंतर बताना सबके वश की बात नहीं होती। अधिकांश लोग जीवन भर इस अंतर को नहीं समझ पाते और सही ढंग से इनकी पहचान न होने के कारण हमेशा परेशानी में पड़े रहते हैं। अपना वह होता है जो हमारे हित की बात करता हो और पराया वह होता है जो किसी दूसरे के हित की बात करता हो। मित्र और शत्रु की पहचान तो प्राय: हो जाती है, लेकिन जो मित्र बनकर शत्रु बना रहता है उसकी पहचान आसानी से नहीं होती।

शत्रु या मित्र होना स्वाभाविक बात है, लेकिन मित्र जब शत्रुवत आचरण करे और शत्रु जब मित्रवत आचरण करे तो इसकी पहचान करना कठिन है। वस्तुत: जो व्यक्ति विवेकशील होते हैं वे पहली ही झलक में पहचान लेते हैं कि यह हमारा शत्रु है या मित्र। पहचानने वाले आंख देखकर पहचान लेते हैं कि सामने खड़ा व्यक्ति कैसा है, लेकिन केवल देखकर पहचानना थोड़ा मुश्किल है। इसके लिए मनुष्य की वृत्ति को समझना पड़ता है और वृत्ति को विवेक की आंखों से ही समझा जा सकता है। कहते हैं सामने से अगर कोई पशु आ रहा हो तो हम आसानी से कह देते हैं कि यह पशु है, गाय, बैल या हाथी है, लेकिन यदि सामने से मनुष्य आ रहा हो तो यह बताना मुश्किल है कि वह आदमी है या राक्षस। इसलिए पशु को पहचानना आसान है, मनुष्य को पहचानना मुश्किल है। जो लोग अपने-पराये की पहचान करना चाहते हैं, उन्हें इसके लिए गहरा अनुभव चाहिए।

इसीलिए युवा पीढ़ी और बुजुर्गो में अंतर होता है। किसी युवा के पास जोश होता है, लेकिन होश नहीं होता और बुजुर्गो के पास होश होता है पर जोश नहीं होता। इसीलिए हमारे बच्चे किसी भी व्यक्ति की आसानी से पहचान नहीं कर पाते और कभी-कभी इसी अज्ञानता के कारण वे अपनेपन का नाटक करने वाले किसी छली, कपटी या स्वार्थी व्यक्ति के चंगुल में फंस जाते हैं और अनेक बुराइयों के शिकार बन जाते हैं। कुछ लोग स्वभावत: हमारे अपने होते हैं जैसे माता-पिता, भाई या गुरु। ये स्वभावत: हमारे अपने हैं। ये लोग कभी हमारी बुराई नहीं कर सकते।

आचार्य सुदर्शन महाराज