नाइश हसन

बात ओम से शुरू हो या अल्लाह से अथवा किसी मंत्रोच्चारण से या कुरान की आयत से, यह तो जिक्र इलाही है। इसे संस्कृत और अरबी की हदबंदियों से परे देखने की जरूरत है। अंतर सिर्फ भाषा का ही तो है। न कोई सूरत दूसरे मजहब से नफरत सिखाती है और न ही कोई मंत्र। प्रेम से बहुत कुछ जीता जा सकता है और दिलों में मुहब्बत पैदा की जा सकती है। जैसे-जैसे साधना के द्वारा हमारा संपर्क अपने स्रोत से जुड़ने लगता है, हमारी पूरी कायनात में एक खास किस्म का संतुलन पैदा होने लगता है। हमारे अंदर संवेदना और समन्वय का भाव उत्पन्न होने लगता है। इसी खास किस्म के संतुलन को बनाए रखने में योग की अहम भूमिका है। अपने अंदर के मौन को सुनने की जरूरत है। तभी सबके लिए प्रेम की भावना का संचार होता हुआ देखा जा सकता है। मैं यहां एक बात खास तौर पर कहना चाहती हूं कि अर्जित ज्ञान तो अर्जित ज्ञान ही होता है तब तक जब तक कि वह अपना अंतर्ज्ञान नहीं बन जाता। कभी-कभी हम सुनी-सुनाई बातों से ही खौफजदा हो जाते हैं। उसे न तो महसूस करने की जरूरत समझते हैं और न ही उसे आत्मसात करते हैं। हिंदू और मुस्लिम, दोनों ही समाजों में एक-दूसरे के प्रति वाहियात सोच भरने का काम कुछ लोग जानबूझ कर करते हैं और इस तरह अपनी तंगजहनी का सुबूत देते हैं। यह हम सबको ही तय करना है कि हमें किस ओर जाना है? योग का जो महत्व है उससे कोई इन्कार नहीं कर सकता।
मैं पिछले आठ वर्षों से योग कर रही हूं। यह एक सामान्य एक्सरसाइज नहीं है। यह आपके चेतना के स्तर तक पर अपना प्रभाव डालता है। यह एक अथाह सागर है। इसमें जितने गहरे उतरते जाएंगे, आप अपने आप में एक खास किस्म का बदलाव देखते जाएंगे। परमहंस योगानंद, युक्तेश्वर गिरि और ऐसे ही अन्य अनेक योग साधकों को सादर नमन जिनकी योग क्रियाएं बेमिसाल थीं। पश्चिम बंगाल की योगिनी गिरिबाला जी ने तो योग क्रियाओं से अपनी भूख पर नियंत्रण कर लिया था। वह 50 वर्षों तक बिना भोजन किए जीवित रहीं। कहते हैं कि ईसा मसीह की जिंदगी में भी बड़ा बदलाव योग के कारण ही आया था। इसलिए जरूरत है कि हम योग पर बेजा बहस करने के बजाय उसे जीकर देखें। यह दुर्भाग्य की बात है कि हिंदुस्तानी मुस्लिम समाज में योग वह स्थान नहीं पा सका जो उसे पाना चाहिए। यह तब है जब 34 से अधिक मुस्लिम राष्ट्र इसे अपना चुके हैं। इसका कारण रहा धार्मिक गंवारूपन, वैचारिक संकीर्णता, दिमागी गरीबी और बिना सोचे समझे फैलाई गई गलतफहमी। इसके लिए स्वघोषित धर्मगुरू कहलाए जाने वाले लोग भी जिम्मेदार हैं, जो अपने निजी फायदे के लिए इस गरीब कौम के जीवन के पल-पल पर अपना पहरा रखना चाहते हैं और अपनी सोच के खिलाफ जाने वालों के विरोध में मोर्चा खोल देते हैं। यही कारण है कि ज्यादातर लोग उनके खिलाफ आवाज उठाने से डरते हैं। सबको पता है कि मुस्लिम समाज में अल्लाह और बंदे के बीच में किसी मौलाना की कोई धार्मिक हैसियत नहीं है, लेकिन इसके बावजूद आप देख सकते हैं कि हजारों छोटे-बड़े मजहबी संगठनों का जाल बिछ गया है।
इंसानी नस्ल के इंसानी नस्ल से ही खौफजदा होने का बुनियादी कारण यह होता है कि वह अपनी रक्षा के लिए छोटे-छोटे समाज बनाकर हिफाजत महसूस करती है। यही हदबंदी अंत में एक-दूसरे से टकराकर इंसानी नस्ल को उसके खून से भिगोती रही है। कोई भी सीमा जो सुरक्षा के लिए बनाई जाती है वही कई बार मानसिक गुलामी को जन्म दे देती है और उससे बाहर निकलना मुश्किल हो जाता है। क्या हिंदुस्तानी मुसलमानों के लिए अन्य मुस्लिम देशों से अलग नियम हैं? इस सवाल पर इस कौम के आम लोगों को पुनर्विचार करना होगा। यह भी सही है कि योग के लिए जबरदस्ती नहीं प्रोत्साहन की जरूरत है। पिछले दिनों राजनीतिक गलियारों से एक सवाल यह भी उठा कि 21 जून को नमाज पढ़ो, योग क्यों? ऐसी बात करने वालों को यह साधारण सी बात समझनी होगी कि 21 जून को अंतरराष्ट्रीय योग दिवस घोषित हुआ है, अंतरराष्ट्रीय नमाज दिवस नहीं। नमाज तो मुस्लिम समाज हमेशा से पढ़ रहा है। इसी बात का एक दूसरा पहलू यह भी है कि योग पर राजनीति न हो। हजारों साल पुरानी योग पद्धति किसी सियासी पहचान की मोहताज नहीं है और न ही हो सकती है। योग को भगवा रंग में रंगे जाने की भी जरूरत नहीं। हमारे देश में सदियों से बड़े-बडे़ योगियों ने योग के क्षेत्र में जो हासिल किया वह किसी राजनीतिक पार्टी की पैरोकारी से नहीं किया, अपने समर्पण और कड़े परिश्रम से हासिल किया। यह तो वह पद्धति है जो हमारे शरीर, मन, क्रोध, काम, तनाव पर नियंत्रण रखते हुए हमें एक स्वस्थ इंसान बनाने में हमारी मदद करती है।
शहाबुद्दीन गौरी जब दिल्ली का बादशाह था तो उसने जो सिक्का चलाया उसमें एक तरफ संस्कृत में लिखा था ला इलाहा इल्लल्लाह मुहम्मदुर्ररसूलुल्लाह और दूसरी तरफ लक्ष्मी जी की मूर्ति बनी हुई थी। यह सिक्का आज भी दिल्ली म्यूजियम में देखा जा सकता है। यह हमारे साथ-साथ होने की एक ऐतिहासिक मिसाल है। इससे बहुत कुछ सीखा जा सकता है। इस देश में तमाम धर्म साथ-साथ रहे हैं और आगे भी रहेंगे। आखिर ऐसी स्थिति में ओम और अल्लाह में फर्क कैसा? जहां रब है वहीं राम। इसे अलग नहीं किया जा सकता। यदि वाहियात बातों से ऊपर उठना है और रोशन ख्याल बनना है तो दोनों ओर से मजहबी हदबंदियां तोड़ने की जरूरत है। यह भी समझें कि सिर्फ बातें करने की नहीं, आगे बढ़ने की भी जरूरत है। इससे बेहतर और कुछ नहीं कि हम एक सकारात्मक सोच के साथ योग अपनाएं। योग न केवल हमारी शारीरिक और मानसिक सेहत को दुरुस्त रखेगा, बल्कि उसके माध्यम से हम अपने भीतर का मौन सुन भी पाएंगे।
[ लेखिका मुस्लिम महिला अधिकार कार्यकर्ता एवं रिसर्च स्कॉलर हैं ]