भारतीय विद्वानों ने ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ यानी समस्त वसुधा को ही परिवार माना है। इस उद्घोष में लौकिक रूप से पूरी वसुधा को अपना परिवार मानने का संदेश तो निहित है, परंतु सूक्ष्म और वैज्ञानिक दृष्टि से इसकी विवेचना से लगता है कि यह मनुष्य को प्राप्त तन व मन को संतुलित और आदर्श बनाने का भी राह प्रशस्त करता है। इस उद्घोष की गहराई में जाने से स्पष्ट पता चलता है कि यदि इसके मूल भाव को आत्मसात कर लिया जाए तो व्यक्ति सहज रूप से श्रेष्ठ मानव ही नहीं महामानव बन सकता है। मनुष्य को प्राप्त पार्थिव शरीर को सबसे कीमती माना जाता है। जीवन के सुख-दुख, लाभ-हानि और जीवन-मरण का सामना इसी शरीर को करना पड़ता है। प्राणवायु तो शून्य में रूप बदलकर विद्यमान रहती है। इसी को गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने अजर और अमर बताया है। यह तो स्पष्ट है कि तन से कार्य कराने में मन की भूमिका होती है।
हमारी ज्ञानेंद्रियां मन से संचालित होती हैं और सारे कार्य इन्हीं ज्ञानेंद्रियों के आदेश पर होते हैं। यहीं व्यक्ति विवेक का इस्तेमाल करे और शरीर की इन सारी इंद्रियों को एक कुटुंब का सदस्य मानकर जैसे परिवार में तालमेल होता है उसी प्रकार एकता और समन्वय कर ले तो शरीर रूपी वसुधा में विकार ही न उत्पन्न हो। मन कुछ कहे, दिल-दिमाग कुछ कहे और इनमें विरोधाभास रहे तो शरीर में धीरे-धीरे बीमारी पैदा होने लगती है, क्योंकि द्वंद्व की स्थिति में असहजता, तनाव, ऊहापोह से शरीर के हृदय, रक्त, मज्जा पर विपरीत असर पड़ने से कोई रोक नहीं सकता। इसलिए छोटी-छोटी वस्तुओं के लिए हीरे-जवाहरात से भी कीमती शरीर को आहत और बोझिल करना घाटे का सौदा है। अग्नि, सूर्य, चंद्रमा के साथ पूरी प्रकृति की आराधना के पीछे ऋषियों का उद्देश्य यही था कि जब हम इनकी पूजा करेंगे तो शरीर रूपी वसुधा में उपद्रव और अशांति नहीं होगी, लेकिन दुखद यह है कि 21वीं सदी में ग्रहों पर जाने की कोशिश में लगा मानव ऋषियों- मुनियों के संदेश की गहराई को नहीं समझ पा रहा है और जल के ऊपरी सतह पर बहने वाले प्रदूषित पदार्थों को ही पाने में गहराई में स्थित रत्नों से वंचित है। आज हम विकसित देशों के भौतिकतावाद की नकल कर रहे हैं, जबकि इन देशों में भारतीय जीवनशैली को तेजी से अपनाया जा रहा है। हमें भी अपने ज्ञान के मूल भाव को समझते हुए ही आगे बढ़ना होगा जो ज्यादा लाभप्रद होगा।
[ सलिल पांडेय ]