सूर्यकुमार पांडेय

पर्यावरण प्रदूषण अब सार्वत्रिक समस्या बन गई है। सभी अपने-अपने हिसाब से उसकी चिंता करते हैं, मगर इससे निपटने की तरकीब की बात सामने आते ही दाएं-बाएं हो लेते हैं। मेरा एक जघन्य शायर मित्र है गर्द गोंडवी। अक्सर पान की दुकान पर विचरण करता पाया जाता है। उससे प्रदूषण की बात क्या छेड़ी वह तत्काल दार्शनिक हो लिया। मटमैले आकाश की ओर मुंह उठाकर सिगरेट का धुआं छोड़ते हुआ बोला, ‘किस प्रदूषण की बात कर रहे हो पांडेजी! राजनीतिक प्रदूषण, सांस्कृतिक प्रदूषण, सामाजिक प्रदूषण, ऐतिहासिक, भौगोलिक, साहित्यिक या फिर कला प्रदूषण की। यहां तो हर क्षेत्र में प्रदूषण ही प्रदूषण व्याप्त है।’
गनीमत थी कि उसको इतने ही प्रदूषण याद थे, अन्यथा वह इस मामले को हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू, विज्ञान और गणित जैसे विषयों के प्रदूषण से जोड़ देता तो अपन के पास ‘खिसको कार्यक्रम’ के सिवा और बचने का कोई और रास्ता नहीं सूझता। मैंने खांसते हुए उसे समझाना चाहा, ‘भइए, आज के समय में मुख्य परेशानी पर्यावरण प्रदूषण को लेकर हो रही है। कलियुग में अगर कुछेक दैत्य हैं तो उनमें से इसे भी आतंकवादियों का भाई ही समझना होगा।’ गर्द गोंडवी वायु प्रदूषण का अहसास कराता हुआ बोला, ‘कुछ सुनाई नहीं दिया। इन आती-जाती हुई गाड़ियों की वजह से बहुत शोर हो रहा है।’ फिर कुछ विचारमग्न होकर कहने लगा, ‘मगर इस प्रदूषण ने शोर उपजाकर अच्छा ही किया है। बेमतलब की चीजेंं सुनाई नहीं पड़ती हैं या फिर सुनाई पड़ती हैं तो अपने काम की बातें या फिर अंतरात्मा की आवाजें। बहुतों के पास अंतरात्मा भी नहीं होती। तब उन्हें सिर्फ खोखली आवाजें ही सुनाई पड़ती हैं जिनके दम पर ऐसे लोग गाल बजाना चालू कर देते हैं और सभी की नाक में दम करना अपना शगल समझते हैं। मैंने चुहल भरे अंदाज में पूछा, ‘भाई मेरे, कहीं तुम्हारा इशारा दिल्ली वाले ‘आप’ साहब की तरफ तो नहीं है!’ गर्द गोंडवी हंसते हुए कहने लगा, ‘अजी पांडेजी, उनकी बात क्या करूं वह तो खीझ विज्ञान के स्वघोषित प्रदूषणाचार्य हैं।’मुझे लगा मैंने बात को ‘ऑड-ईवन’ दिशा में मोड़ दिया है। राजनीति पर बात करने में हम भारतीयों से कोई जीत नहीं सकता है। अपने यहां सुदूर गांव में रहने वाला कम पढ़ा-लिखा आदमी भी राजनीति पर घंटों चर्चा करने में सक्षम है। उससे कोई राजनीतिशास्त्र का प्रकांड पंडित बहस कर के देख ले! मेरी गारंटी है कि शर्तिया हार जाएगा। जहां तक मैं गर्द गोंडवी को जानता था, वह राजनीतिक बहसों में मोहल्ला स्तर का अघोषित चैंपियन है। उससे इस मामले में टकराना भी कुछ वैसा ही था जैसे तमाम छापों के बावजूद देश में भ्रष्टाचार का प्रदूषण फैलाने वाले अपनी हरकतों से बाज नहीं आते हैं। यह भ्रष्टाचार भी तो एक किस्म का प्रदूषण ही है।
स्वच्छ भारत अभियान को ठेंगे पर रखने वाले आपको गली-गली में मिल जाएंगे। पड़ोसी का धर्म होता है कि अपना कचरा आपके दरवाजे पर फेंकना। हमारे देश का भी एक पड़ोसी अशांति का प्रदूषण फैलाता रहता है। और तो और आज देश की सारी नदियां प्रदूषित हैं। सभी को ‘नमामि गंगे’ जैसी परियोजना की आवश्यकता है। जब तक हम अपनी सोच नहीं बदलते हालात ऐसे ही रहेंगे। किसी समय हमारे देश के ऋषि-मुनि आध्यात्मिक उन्नति के लिए ध्यान लगाने वनों में जाते थे। आज वनों की संरक्षा की ओर ही किसी का ध्यान नहीं है तो पर्यावरण कैसे पवित्र बने! मैंने बात आगे बढ़ाई और कहा, ‘मेरे विचार से तो यह जनसंख्या वृद्धि ही सारे प्रदूषणों का मूल कारण है।’ गर्द गोंडवी इस बार मुझसे सहमत नजर आया। बोला, ‘बेतहाशा बढ़ती आबादी के चलते शांति तो आज के समय में मरघट तक में नहीं है। फिर जिंदगी में कहां से आए।’ मैंने उससे थोड़ा और ऊंचा बोलने का इशारा किया तो वह कहने लगा, ‘अगर सबकी सुनी जाने लगे तो कोई काम हो ही नहीं सकता। इस नाते समझदार लोग सुनते ही नहीं हैं। अपने मन की करते हैं। पब्लिक का काम तो सदियों से शोर मचाना रहा है। समझदारी इसी में है कि आप अपने कानों में रूई ठूंस लें। बाहर की कोई आवाज भीतर नहीं आएगी।’ मैं भी कुछ ज्यादा ही पॉल्यूश्नाया हुआ था। सो बात और आगे बढ़ा दी, ‘मेरी समझ में तो विकास की प्रक्रिया के चलते तमाम उद्योगों की बहुतायत ही समस्या की असल जड़ है।’
गर्द गोंडवी ने पान की पीक सड़क पर उड़ेलते हुए आसपास के असल पर्यावरण पर सरसरी निगाह डाली। फिर आश्वस्त होते हुए हिंदी में अंग्रेजी का तड़का लगाते हुए बोला, ‘फिकर नॉट। पॉल्यूशन का फ्यूचर हंड्रेड परसेंट सेफ है। एनजीओज जुटे पड़े हैं। उन्हें गवर्नमेंट की हेल्प अलग से है। चतुर्दिक पॉल्यूशन कंट्रोल के नाम पर वर्क करने वाले इंस्टीट्यूशंस की बाढ़ आई हुई है।’ हिंदी पट्टी की यह खास विशेषता है। जब भी यहां के आदमी को सामने वाले पर इंप्रेशन जमाना होता है, वह फौरन इंग्लिश की शरण में चला जाता है। मैंने टोका तब कहीं जाकर सामान्य हुआ। अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहने लगा, ‘आप सोचते होगे कि किसी भी तरह की बाढ़ आने से तबाही आती है। जी नहीं, पांडेजी फिर से सोच कर देखना। यह वह बाढ़ है जिसमें उलटे कितने सारे परिवार आबाद हो जाते हैं। धन की बारिश होती है। कागज पर वृक्षारोपण होता है। सूखे में भी नावें चलती हैं।’ गर्द गोंडवी के मुंह की चिमनी धुआंधार लेक्चर उगल रही थी। मेरे सब्र का बांध भी टूट रहा था। मैंने जयहिंद किया और खिसक लिया, क्योंकि उसके सीने की जलन और आंखों के तूफान का प्रदूषण स्तर मेरे दिमाग की ओजोन परत में अब बड़ा वाला छेद बनाने ही वाला था।

[ हास्य-व्यंग्य ]