नाइश हसन

वैसे तो अपने देश में कानून और जिंदगी साथ-साथ चलती नजर नहीं दिखती और ज्यादातर मामलों में दोनों की दिशा भिन्न ही नजर आती है, लेकिन इस सबके बावजूद कानून पर हिंदुस्तानियों का भरोसा बरकरार है। रोज अदालतों में पहुंचते तमाम मामले इसकी नजीर हैं। लोग बरसों तक न्याय की आस नहीं छोड़ते। अपने देश में विवाह पंजीकरण का मामला नया नहीं है। आजादी से पहले भी विवाह पंजीकरण पर बहस हुई और उसे कई राज्यों में लागू भी किया गया। बतौर उदाहरण असम मुस्लिम विवाह और विवाह विच्छेद पंजीकरण अधिनियम 1935 में बना। आजादी के बाद ओडिशा पहला राज्य था जहां मुस्लिम विवाह और विवाह विच्छेद पंजीकरण अधिनियम 1949 में बना। इसके अलावा बंगाल मुस्लिम विवाह और विवाह-विच्छेद पंजीकरण अधिनियम, 1976 में बना। बंबई विवाह पंजीकरण अधिनियम 1953 में बना। यह महाराष्ट्र के साथ गुजरात में भी मान्य था। हिमाचल प्रदेश विवाह पंजीकरण अधिनियम 1996 में बना। आंध्र प्रदेश अनिवार्य विवाह पंजीकरण अधिनियम, 2002 में सामने आया और यूपी हिंदू विवाह पंजीकरण अधिनियम 1973 में एवं हरियाणा हिंदू विवाह पंजीकरण नियम 2001 में बना। ईसाईयों और पारसियों पर लागू वैवाहिक कानून के तहत भी शादी का पंजीकरण अनिवार्य है। कुछ राज्यों ने इस मामले पर खामोशी बरकरार रखी। इसके पीछे भी कुछ सियासी वजहें ही रहीं, लेकिन इस मामले पर भारत सरकार और सुप्रीम कोर्ट का रुख काफी अरसे से एक ही रहा है।
सीमा बनाम अश्विनी कुमार, 2006 के केस की सुनवाई करते हुए जस्टिस अरिजीत पसायत और एसएम कपाड़िया द्वारा कहा गया था कि सभी व्यक्ति जो भारत के नागरिक हैं, वे चाहे जिस धर्म के हों, उनकी शादी का अनिवार्य रूप से पंजीकरण होना चाहिए। विवाह पंजीकरण न होने से कई बार महिलाओं पर विपरीत असर पड़ता है। राष्ट्रीय महिला आयोग द्वारा महिलाओं के लिए विवाह के अनिवार्य पंजीकरण पर एक कानून लाने के लिए भी ‘अनिवार्य विवाह पंजीकरण बिल, 2005’ भी तैयार किया गया था। भारत ने महिलाओं के साथ सभी प्रकार के भेदभाव समाप्त करने हेतु एक अंतरराष्ट्रीय संधि पर 1993 में हस्ताक्षर भी किए थे। यह विवाह के अनिवार्य पंजीकरण की बात करती है। राष्ट्रीय महिला आयोग ने सुप्रीम कोर्ट में यह राय देते हुए हलफनामा दिया है कि विवाह का पंजीकरण न होना सबसे अधिक महिलाओं को प्रभावित करता है। आयोग ने यह भी कहा है कि ऐसा कानून महिलाओं से संबंधित विभिन्न मुद्दों के लिए बेहद महत्वपूर्ण है। इससे बाल विवाह की रोकथाम और विवाह की न्यूनतम आयु सुनिश्चित होगी, गैर कानूनी द्विविवाह/बहुविवाह की जांच हो सकेगी, विवाहित महिलाओं को अपने वैवाहिक घर में रहने, भरण पोषण भत्ता आदि का अपना अधिकार प्राप्त करने में मदद मिलेगी और विधवाओं को उनके विरासत के अधिकार और अन्य लाभ हासिल करने में मदद होगी। इस सबके अलावा इससे मुताह प्रथा भी रुकेगी जो कुछ क्षेत्रों में अभी भी मौजूद है। इसके अतिरिक्त तीन तलाक का सिलसिला भी थमेगा और विवाह के बाद महिलाओं को छोड़ने से पुरुषों को रोकने में भी मदद मिलेगी। एक अन्य लाभ यह होगा कि माता-पिता/अभिभावकों को बेटियों को शादी के नाम पर विदेशियों समेत किसी के भी हाथों बेचने से रोका जा सकेगा।
कोर्ट ने उक्तकेस पर बहस के वक्त यह चिंता जाहिर की थी कि विवाह पंजीकरण के अभाव में कुछ बेईमान व्यक्तिअपने स्वार्थ के लिए शादी से इन्कार कर रहे हैं। वे ऐसा करने में इसलिए समर्थ हो जाते हैं, क्योंकि अधिकतर राज्यों में विवाह के आधिकारिक रिकार्ड नहीं होते। कोर्ट का कहना था कि अगर शादी का रिकार्ड रखा जाए तो काफी हद तक विवाह से जुड़े विवादों से बचा जा सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र और राज्य सरकारों को इस संबंध में निर्देश भी जारी किए थे। कुछ राज्यों ने इसे गंभीरता से लिया और कुछ ने अभी तक इस मुद्दे पर कोई कार्रवाई नहीं की है। दुर्भाग्य की बात यह रही कि मुस्लिम समाज में पिछले कई वर्षों से यह विवाद का मुद्दा बना रहा है। कट्टरपंथियों का तर्क है कि निकाहनामा अपने आप में पंजीकरण है। ऐसे में किसी अन्य पंजीकरण की जरूरत नहीं है। और फिर यह उनका निजी मामला है। उत्तर प्रदेश सरकार ने हाल में विवाह पंजीकरण कोे लागू करने का फैसला लिया और इसी के साथ पुरानी बहस एक बार फिर जिंदा हो गई। इसके पहले राजनीतिक दलों ने अपने फायदे के लिए मजहबी संगठनों का साथ देते हुए इस काम को करने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई थी। 2015 में तत्कालीन सरकार ने इसे लागू करने से मना कर दिया। ऐसा लगता है कि सरकारों के केंद्र में महिला कभी रही ही नहीं, अन्यथा क्या कारण है कि महिला संगठनों की लगातार मांग के बावजूद विवाह पंजीकरण को अनिवार्य करने की दिशा में समय रहते आगे नहीं बढ़ा गया? विवाह पंजीकरण अनिवार्य किए जाने के फैसले को कुछ मजहबी संगठन धार्मिक आजादी में दखल बता रहे हैं। उन्हें यह बात समझनी होगी कि किसी भी विदेश यात्रा पर जाते समय पति-पत्नी अपना निकाहनामा दिखाकर वीजा नहीं प्राप्त कर सकते, जब तक कि जिलाधिकारी उसे प्रमाणित न करे। जाहिर है कि इस काम में समय लगता है। यदि विवाह पंजीकरण प्रमाणपत्र हो तो वह फायदेमंद ही होगा।
एक तरफ तो मुस्लिम मजहबी तंजीमें विवाह पंजीकरण को धार्मिक आजादी में दखल बता रही हैं जो कि सच नहीं और दूसरी तरफ कुछ लोग अल्पसंख्यकों को निशाना बनाते हुए यह कह कह रहे हैं कि पंजीकरण न कराने वालों पर दंडात्मक कार्रवाई की जाए। यह तर्क देने वाले यह ध्यान रखें कि तमाम हिंदू जोड़े उप्र हिंदू विवाह पंजीकरण कानून 1973 लागू होने के बावजूद पंजीकृत नहीं हैं। क्या उन पर भी दंडात्मक कार्रवाई की जाएगी? ध्यान रहे कि सुप्रीम कोर्ट ने कहीं भी दंडात्मक कार्रवाई की बात नहीं की है। ऐसे में सरकार को इस पर ध्यान देना होगा कि किसी समुदाय विशेष को निशाना न बनाया जाए। विवाह के साथ ही तलाक का पंजीकरण भी अनिवार्य होना चाहिए। सरकार को इस पर भी ध्यान देना चाहिए कि पंजीकरण की प्रक्रिया हर परिवार तक आसानी से पहुंच सके। जिस प्रकार जन्म-मृत्यु पंजीकरण प्रचार-प्रसार के माध्यम से आमजन के लिए सुलभ है उसी प्रकार विवाह और तलाक का पंजीकरण भी सुलभ हो सकता है। यह देश की समस्त महिलाओं के लिए सुलभ होना चाहिए, क्योंकि इससे उन्हें न्याय पाने में मदद मिलेगी।
[ लेखिका मुस्लिम महिला अधिकार कार्यकर्ता एवं रिसर्च स्कॉलर हैं ]