नई दिल्ली [ डॉ. एके वर्मा ]। हाल में उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान और मध्य प्रदेश विधानसभा और लोकसभा उपचुनावों के नतीजों ने भाजपा द्वारा त्रिपुरा, नगालैंड और मेघालय में अप्रत्याशित विजय के स्वाद को कड़वा कर दिया। खासतौर पर उत्तर प्रदेश में गोरखपुर और फूलपुर लोकसभा सीटों पर भाजपा की हार ने अधिकांश लोगों को हैरान कर दिया। ये सीटें मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ योगी और उप-मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य की थीं। इससे संदेश गया कि जनता ने सरकार के शीर्ष नेतृत्व को नकार दिया जो भाजपा सरकार के जनोन्मुखी होने पर सवाल खड़े करता है। दूसरा संदेश यह गया कि राजनीति में धुर विरोधी दल बसपा और सपा साथ आ जाएं तो भाजपा को आसानी से हराया जा सकता है और आगामी लोकसभा चुनावों में गैर-भाजपा दलों को एक मंच पर लाकर नए राजनीतिक परिदृश्य की पटकथा लिखी जा सकती है। इससे उत्साहित होकर मोदी सरकार के विरुद्ध अविश्वास का प्रस्ताव भी लाया गया। इस उत्तेजना में सिक्के के दूसरे पहलू पर अभी तक किसी ने ध्यान नहीं दिया।

गोरखपुर लोकसभा सीट पर योगी की पसंद का प्रत्याशी नहीं था

गोरखपुर लोकसभा सीट 1989 से ही योगी आदित्यनाथ और उनके गुरु अवैद्यनाथ के पास रही है। मुख्यमंत्री बनने के बाद योगी ने कोई ऐसा काम नहीं किया कि अपने क्षेत्र में उनकी लोकप्रियता में कोई अप्रत्याशित कमी आ जाए। वास्तव में योगी गोरखपुर को अपने वर्चस्व वाली सीट मानते हैं, न कि भाजपा की। इसलिए जब उनकी पसंद के प्रत्याशी को टिकट न देकर किसी दूसरे को दिया गया तो उनकी नाराजगी स्वाभाविक थी। अत: गोरखपुर में भाजपा की लड़ाई केवल सपा से ही नहीं वरन अपने लोगों से भी होनी ही थी। क्या यह चौंकाने वाली बात नहीं कि योगी के बूथ पर ही भाजपा को इतने कम वोट मिले? कहीं ऐसा तो नहीं कि योगी की सेना भाजपा प्रत्याशी की हार से खुश हो?

 भाजपा ने फूलपुर लोकसभा सीट पर मौर्य की पसंद को दरकिनार किया

फूलपुर में भी यही दिखा। फूलपुर सीट आजादी के बाद से ही या तो कांग्रेस के पास रही या समाजवादियों के पास। केवल 2009 में इसे बसपा ने जीता था। केशव प्रसाद मौर्य ने 2014 में पहली बार फूलपुर सीट भाजपा के लिए जीती। मौर्य को एक कष्ट था और एक गुमान भी। कष्ट यह कि 2017 चुनावों के बाद मुख्यमंत्री बनने का संकेत मिलने के बाद भी वह केवल उप-मुख्यमंत्री ही बन पाए और गुमान इसका कि आजादी के बाद पहली बार भाजपा के लिए सीट जीतकर उन्होंने इतिहास रचा। इसकी वजह से वह भी इस सीट को अपने ही परिवार में रखना चाहते थे जिसे पार्टी ने स्वीकार नहीं किया। जाहिर है उनको भी अपना आक्रोश व्यक्त करना ही था और उसी का खामियाजा था कि पार्टी सीट हारी।

भाजपा के अधिकांश मतदाता मतदान के लिए निकले ही नहीं

भाजपा के अधिकांश मतदाता मतदान के लिए निकले ही नहीं। कम मतदान के बाबत पूछे जाने पर क्षेत्र के मतदाताओं ने बताया कि न तो बीएलओ और न ही पार्टी का कोई कार्यकर्ता ‘पर्ची’ देने आया और उनको पता ही नहीं चल सका कि मतदान करने जाना कहां है? रही-सही कसर मायावती द्वारा सपा के प्रत्याशी को समर्थन देने से पूरी हो गई। बसपा ने अपना प्रत्याशी नहीं उतारा इसलिए दोनों दलों ने भाजपा को हराने का साझा एजेंडा बना लिया और मायावती ने अपने वोट सपा को हस्तांतरित करा दिए। वैसे तो उपचुनावों में विजय का आम चुनावों के परिणामों से कोई निश्चित संबंध नहीं है, लेकिन आंकड़े बताते हैं कि 1962 से आज तक उप्र में केवल 31 फीसद मामलों में ही उपचुनाव जीतने वाली पार्टी आगामी चुनावों में भी जीती।

क्या आगामी लोकसभा चुनाव में सपा-बसपा गठबंधन वोटों का हस्तांतरण करा सकेगा?

पर यहां तो एक मामला और उलझा हुआ है। एक तो सपा-बसपा की राष्ट्रव्यापी उपस्थिति और जनाधार नहीं है। दूसरे, उत्तर प्रदेश में चुनाव पूर्व सपा-बसपा गठबंधन क्या इसी प्रकार वोटों का हस्तांतरण करा सकेगा? अगर लोकसभा चुनावों में सपा-बसपा 40-40 सीटों का बंटवारा करती हैं तो क्या परिदृश्य उभरेगा? उस स्थिति में बसपा के 40 प्रत्याशी लोकसभा चुनाव लड़ने से वंचित रह जाएंगे, क्योंकि वहां से सपा के प्रत्याशी लड़ेंगे। क्या बसपा के टिकट से वंचित ऐसे प्रत्याशी फिर भी सपा के पक्ष में दलित मतों का हस्तांतरण करवाएंगे या वे स्वयं किसी और दल या भाजपा का दामन पकड़ने की कोशिश करेंगे?

उपचुनाव स्थानीय मुद्दों पर लड़े जाते हैं

आज भाजपा के पास राज्य में दलित विधायकों और सांसदों की भारी संख्या है। दूसरी समस्या यह है कि टिकट बंटवारे से सपा के भी जो 40 प्रत्याशी लोकसभा चुनाव न लड़ पाएंगे क्या वे बसपा के पक्ष में वोट डलवाएंगे? और क्या अखिलेश यादव के पास मायावती की तरह वोट हस्तांतरित कराने की क्षमता भी है? गोरखपुर और फूलपुर लोकसभा में निर्वाचित प्रत्याशियों को केवल एक वर्ष का कार्यकाल मिलना था, क्योंकि एक वर्ष बाद लोकसभा के आम चुनाव होंगे। बसपा ने उपचुनाव लड़ा नहीं और भाजपा ने दमखम दिखाया नहीं जिससे दलित मतों का हस्तांतरण हो सका। फिर उपचुनाव स्थानीय मुद्दों पर लड़े जाते हैं, उनका राष्ट्रीय राजनीति से कोई लेना-देना नहीं।

लोकसभा चुनावों के समय मतदाता को राष्ट्रीय मुद्दे और नेतृत्व ज्यादा प्रभावित करते हैं

लोकसभा चुनावों के समय मतदाता की सोच बदल जाती है। उसे राष्ट्रीय मुद्दे और नेतृत्व ज्यादा प्रभावित करते हैं। इसीलिए, स्थानीय स्तर पर प्रत्याशियों को न पसंद करने के बावजूद वह पार्टी और राष्ट्रीय नेता के नाम पर वोट दे देता है। इसी के चलते 2014 में मोदी के नेतृत्व में लड़े लोकसभा चुनाव में भाजपा को उत्तर प्रदेश में प्रचंड जीत मिली। फिर भी भाजपा को सोचना चाहिए कि क्या किसानों के उत्पाद सरकारें खरीद रही हैं और क्या उन्हें न्यूनतम समर्थन मूल्य मिल भी रहा है? क्या हालिया बजट से शहरों में वेतनभोगी मध्यम वर्ग खुद को छला तो महसूस नहीं कर रहा? क्या स्टार्टअप और स्टैंडअप के लिए ऋण देने में बैंक भ्रष्टाचार तो नहीं कर रहे?

देशहित में कठोर निर्णय लेना ठीक है, लेकिन उनको अमल में लाने के लिए जनसमर्थन जरूरी है

सोनिया गांधी ने डिनर-डिप्लोमेसी’ द्वारा तकरीबन दो दर्जन दलों को इकट्ठा करने की कोशिश की है, लेकिन क्या इन दलों के महत्वाकांक्षी नेता राहुल गांधी का नेतृत्व स्वीकार करेंगे? क्या राहुल के नेतृत्व को जनता स्वीकार कर पाएगी? जो पार्टी कभी अधिकांश राज्यों और केंद्र की सत्ता में रही आज वह पंजाब, कर्नाटक और मिजोरम में क्यों सिमट गई है? कांग्रेस राष्ट्रीय पार्टी है, एक-से-एक योग्य नेता हैं, वे क्यों नहीं नेतृत्व दे सकते? क्या भाजपा को हराना ही विपक्ष का एकमात्र लक्ष्य है या कोई ठोस विचारधारा, योग्य नेतृत्व और बेहतर वैकल्पिक नीतियां भी लेकर महागठबंधन आएगा? मोदी और भाजपा को केवल काम पर ही नहीं, वरन जनता तक उसे पहुंचाने पर भी ध्यान देना चाहिए। भाजपा विरोधी अक्सर यह तंज कसते हैं कि चार साल में मोदी ने किया ही क्या है? इसका ठोस जवाब सामान्यत: किसी के पास नहीं होता। भाजपा विरोधी तो लोकतंत्र में अपनी चालें चलने के हकदार हैं, लेकिन कोई जनप्रिय सरकार इसलिए गिर जाए कि सब विरोधी दल मिल कर उसे पटक दें, यह लोकतंत्र की भावना के प्रतिकूल होगा। देशहित में कठोर निर्णय लेना ठीक है, लेकिन उनको अमल में लाने के लिए जनसमर्थन बहुत जरूरी है। ऐसा तभी हो सकेगा जब भाजपा कठोर फैसलों के साथ ‘सॉफ्ट-पॉलिटिक्स’ का समन्वय करेगी।

[ लेखक सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ सोसाइटी एंड पॉलिटिक्स के निदेशक एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं ]