संजय गुप्त

अयोध्या में विवादित ढांचे के ध्वंस के 25 साल बाद सुप्रीम कोर्ट को जिस तरह भाजपा और विश्व हिंदू परिषद के 13 नेताओं के खिलाफ आपराधिक साजिश का मुकदमा चलाए जाने का आदेश देना पड़ा उससे एक बार फिर देश में न्याय प्रणाली की धीमी रफ्तार उजागर हो रही है। विवादित ढांचे का ध्वंस हिंदुओं की अपनी आस्था पर आघात के प्रति नाराजगी का नतीजा था। यह कोई रहस्य नहीं कि बाबर के सेनापति ने अयोध्या में भगवान राम के मंदिर को ध्वस्त कर मस्जिद का निर्माण कराया था। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के आदेश साथ-साथ पुरातत्व विभाग भी यह प्रमाणित कर चुका है कि बाबरी मस्जिद का निर्माण राममंदिर को तोड़कर किया गया। करोड़ों हिंदू यह जो मानते हैं कि अयोध्या राम की जन्मस्थली है उसकी पुष्टि तमाम ऐतिहासिक-पौराणिक प्रसंग भी करते हैं। अयोध्या में भगवान राम का मंदिर भारत की सांस्कृतिक पहचान और आस्था का प्रतीक है। हिंदू समुदाय अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के लिए सदैव बेचैन रहा है। आजादी के बाद से ही यह मांग उठती रही है कि जिन प्रमुख मंदिरों को तोड़कर वहां मस्जिद बनाई गईं उन्हें फिर से पुराने रूप में लौटाया जाए। अयोध्या की तरह मथुरा और काशी के मंदिरों के लिए भी हिंदू समुदाय की यही भावना रही है। होना तो यह चाहिए था कि आजादी के बाद इस पर गंभीरता से काम किया जाता, लेकिन राजनीतिक कारणों से इसकी अनदेखी ही की जाती रही। सरदार पटेल ने सोमनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार अवश्य कराया, लेकिन उनके बाद कांग्रेस ने भारतीय संस्कृति पर विदेशी आक्रमणकारियों द्वारा लगाए गए दाग हटाने की कोई पहल नहीं की। इसकी एक बड़ी वजह अपने संकीर्ण राजनीतिक लाभ के लिए समाज को बांटे रखने की सोच रही।
यह हिंदुओं की आस्था की अनदेखी का ही प्रतिफल था कि भाजपा ने अयोध्या मामले को राजनीतिक विमर्श के केंद्र में लाने की पहल की। इस काम में उसे सफलता भी मिली। हिंदू समाज अयोध्या में राम मंदिर के प्रश्न पर खूब मुखर हुआ, लेकिन उसकी उपेक्षा हुई। बाद में राम मंदिर आंदोलन ने राजनीतिक दलों को पक्ष-विपक्ष में खड़े होने के लिए विवश किया। भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने अपनी रथयात्रा के जरिये इस मुद्दे पर वृहद हिंदू समाज को आंदोलित करने का काम किया। भाजपा के कुछ अन्य सहयोगी संगठनों ने भी इस आंदोलन को मजबूत किया। 1992 में जब भाजपा एक सशक्त राजनीतिक ताकत बन चुकी थी और कल्याण सिंह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे तब ऐसे ही एक आंदोलन के दौरान लाखों की भीड़ अयोध्या में जमा हुई और देखते-देखते महज चार घंटे में विवादित ढांचा तोड़ दिया गया। अपने आक्रोश के प्रदर्शन का यह सही तरीका नहीं था। यह दुर्भाग्यपूर्ण घटना थी। बेहतर होता कि ढांचा तोड़ने के बजाय मुस्लिम समुदाय से बातचीत के जरिये राम मंदिर निर्माण पर जोर दिया जाता। ढांचे का ध्वंस भीड़ का आवेश अनियंत्रित हो जाने का प्रतिफल था। उस समय भाजपा के जो भी वरिष्ठ नेता वहां पर मौजूद थे उनकी मंशा यह नहीं थी कि ढांचा गिरा दिया जाए। सीबीआइ की इस दलील में ज्यादा दम नहीं नजर आता कि ढांचे का ध्वंस भाजपा नेताओं की किसी साजिश का नतीजा था।
भाजपा के विरोधी दल यह आरोप लगाते रहे हैं कि लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, उमा भारतीय, कल्याण सिंह और विनय कटियार जैसे नेताओं ने ढांचे के ध्वंस की साजिश रची थी, लेकिन हर कोई जानता है कि यह सच नहीं। तत्कालीन सरकार के समय राजनीतिक कारणों से इन वरिष्ठ नेताओं के खिलाफ मुकदमा दर्ज किया गया था, जिसमें साजिश वाले आरोप को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने खारिज भी कर दिया था। इस मामले का पटाक्षेप पहले ही हो जाना चाहिए था, लेकिन राजनीति के चलते यह कभी खत्म नहीं हुआ। यदि आडवाणी, जोशी, उमा भारती, कल्याण सिंह आदि तकनीकी आधार पर मामले को खत्म कराने के बजाय अदालती प्रक्रिया का सामना करते तो आज इतने वर्षों बाद उन्हें नए सिरे से मुकदमे का सामना नहीं करना पड़ता। अब जब उच्चतम न्यायालय ने यह निर्देश दिया है कि यह मामला रोजाना सुनवाई के साथ दो साल में निपटना चाहिए तब यह उम्मीद की जा सकती है कि तय समय में इस मामले का पटाक्षेप हो जाएगा। सुप्रीम कोर्ट ने ढांचे के ध्वंस को आपराधिक साजिश मानते हुए अपना जो फैसला दिया उस पर विश्व हिंदू परिषद के नेता प्रवीण तोगड़िया का कहना है कि कश्मीर से हिंदुओं का जबरन निष्कासन कहीं बड़ा आपराधिक षड़यंत्र था। उन्होंने इस षड़यंत्र के लिए जिम्मेदार लोगों के खिलाफ कार्रवाई की मांग भी की। पता नहीं इस तरह की मांगों का कब संज्ञान लिया जाएगा, लेकिन यह ठीक नहीं कि कुछ विपक्षी दल सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर संकीर्ण राजनीति करने से बाज नहीं आ रहे हैं। विपक्षी दलों के नेता यह जो आरोप लगा रहे हैं कि भाजपा अपने मार्गदर्शक वरिष्ठ नेताओं का बचाव जानबूझकर नहीं कर रही वे अनर्गल और हास्यास्पद ही कहे जाएंगे।
आडवाणी-जोशी समेत अन्य वरिष्ठ नेताओं के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट ने जो आदेश दिया वह एक न्यायिक प्रक्रिया का हिस्सा है। यदि सीबीआइ को उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ अपील न करने दी जाती तो यह तय है कि सारे विपक्षी राजनीतिक दल तूफान खड़ा कर देते। सीबीआइ के काम में दखल न देकर सरकार ने यही संकेत दिया कि यह संस्था स्वतंत्र रूप से काम करती है। क्या अतीत में किसी सरकार ने अपनी पार्टी के इतने वरिष्ठ नेताओं के खिलाफ सीबीआइ को काम करने दिया है? ध्यान रहे कि सीबीआइ ने इस मामले में जो रुख अपनाया वह आज का नहीं है। संप्रग सरकार के समय सीबीआइ ने भाजपा नेताओं के खिलाफ आपराधिक साजिश का मुकदमा चलाने की मांग की थी और वह अभी भी अपने रुख पर कायम है।
हो सकता है कि ढांचा ध्वंस मामले में साजिश के पहलू का निस्तारण दो साल में हो जाए, लेकिन क्या कोई अयोध्या में मंदिर-मस्जिद मसले के जल्द समाधान के लिए कोशिश करेगा? कुछ दिनों पूर्व उच्चतम न्यायालय ने यह भरोसा दिलाया था कि वह इस विवाद के समाधान के लिए मध्यस्थता भी करने के लिए तैयार है,
लेकिन बाद में सुप्रीम कोर्ट इससे पलट गया।
इस विवाद के समाधान में पहले ही बहुत देरी हो चुकी है। सुप्रीम कोर्ट चाहे तो इसका शीघ्र समाधान हो सकता है, लेकिन पता नहीं क्यों इसमें देरी होती जा रही है? अच्छा यह होगा कि अयोध्या विवाद का हल बातचीत के जरिये निकाल लिया जाए। यह मुद्दा इतना जटिल नहीं जितना उसे बना दिया गया है। अयोध्या में राम मंदिर के प्रति देश-विदेश के करोड़ों हिंदुओं की भावनाएं देखते हुए मुस्लिम समाज को स्वयं ही आगे आना चाहिए और इस स्थान से मस्जिद की दावेदारी वापस ले लेनी चाहिए।

[ लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं ]