प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को केंद्र की सत्ता में रहते हुए ढाई साल हो गए हैं। इस दौरान उनके काम-काज से विपक्ष के मन में पैदा हुई असुरक्षा की भावना को साफ तौर पर महसूस किया जा सकता है। यही वजह है कि प्रधानमंत्री के हर कदम और फैसले पर उसकी तीखी और ऊटपटांग प्रतिक्रिया देखने को मिल रही है। ऐसा लगता है कि विपक्षी दल के नेता प्रधानमंत्री को अपनी चाल में फंसाना चाहते हैं और इसके लिए निरर्थक प्रतिक्रिया रूपी अपने चारे का इस्तेमाल कर रहे हैं। लेकिन विरोधियों की बातों से थोड़ा अलग हटकर देखें तो पाते हैं कि प्रधानमंत्री मोदी सत्ता में आने के बाद से ही लगातार काम कर रहे हैं और इस दरम्यान उन्होंने ऐसा कोई काम नहीं किया है जिससे लोगों में उनके प्रति नाराजगी हुई हो। मोदी को घेरने के लिए विपक्ष को नोटबंदी से एक आस जगी थी। उन्होंने बैंकों और एटीएम की लाइनों में खड़े लोगों को भड़काने की हरसंभव कोशिश की। मीडिया ने भी जगह-जगह लगी लंबी कतारों को दिखाने के लिए रात-दिन एक किया। यहां तक कि राहुल गांधी भी लाइन में लगे और उन्होंने यह दिखाने की कोशिश की कि भारत में कतारें सिर्फ 2016 में ही लगी हैं। हालांकि इसमें कोई दो राय नहीं कि नोटबंदी से लोगों को असीम तकलीफें उठानी पड़ीं, लेकिन इसके बावजूद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लेकर उनके मन में कोई दुराव पैदा नहीं हुआ। लोगों के व्यवहार से विपक्षी दलों के नेता तक भ्रमित हो गए। एक निजी बातचीत में विपक्षी नेताओं ने इस पर आश्चर्य व्यक्त करते पूछा कि इतनी परेशानी के बाद भी इतना कम विरोध, आखिर यह कैसे संभव है? इसका जवाब एकदम सीधा है कि देश ने लंबे समय से ऐसा नेता नहीं देखा था जिसका संपूर्ण ध्यान अपने काम और चुनावों में किए गए वादों को पूरा करने पर हो। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि पूर्व संप्रग सरकार में भ्रष्टाचार चरम पर पहुंच गया था जिसे खत्म करने के लिए लोगों ने 2014 में मोदी की पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई।
राजनीतिक पंडित अक्सर मोदी लहर की बात करते हैं, लेकिन वे इस बात की पड़ताल नहीं करते हैं कि आखिर 2014 में उठी मोदी लहर की वजह क्या थी? दरअसल वह लहर सवा सौ करोड़ देशवासियों की उम्मीदों की लहर थी। इतनी बड़ी आबादी की उम्मीदों पर खरा उतरना बड़ा ही दुष्कर काम था, लेकिन पिछले ढाई वर्षों के दौरान मोदी ने इसके लिए हर जतन किए हैं। यहां तक कि उन्होंने अपना राजनीतिक भविष्य तक दांव पर लगाने में संकोच नहीं किया। आखिर देश में किस राजनेता ने ऐसा किया है?
इस महीने के आरंभ में एक सऊदी महिला से मेरी मुलाकात हुई, जो कि स्तन कैंसर की मरीज और योग शिक्षक है। योग को आगे बढ़ाने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को उसके द्वारा जताया गया आभार दिल को छू लेने वाला था। उसने मुझसे कहा कि मोदी जी योग के उत्थान के लिए जो कर रहे हैं, उसके लिए हम सभी सऊदी महिलाएं उनको धन्यवाद देना चाहती हैं। तीन साल पूर्व तक किसी सऊदी को योगी के रूप में देखने के बारे में सोच भी नहीं सकती थी, लेकिन आज मैं उससे साक्षात मिल सकती हूं। इसके अतिरिक्त उसने मुझे बताया कि योग अभ्यास से कैसे महिलाओं का सशक्तीकरण हो रहा है, उनके लिए रोजगार के अवसर बढ़ रहे हैं और विवाह संबंधी समस्याओं से छुटकारा मिल रहा है। मुझे यह देखकर काफी गर्व महसूस हुआ कि योग कैसे दूसरी संस्कृतियों और देशों में लोगों के जीवन में सकारात्मक बदलाव ला रहा है और उनकी मदद कर रहा है। हालांकि इस बीच मुझे यह भी याद आ रहा है कि पहले योग दिवस पर हमारे देश में योग को लेकर किस तरह का हंगामा खड़ा हुआ था।
इन दिनों देश में एक और विवाद चर्चा में है। दरअसल खादी ग्रामोद्योग के कैलेंडर और डायरी पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चरखे के साथ तस्वीर का छपना कुछ लोगों को नागवार गुजरा है। विपक्ष को एक बार फिर हंगामा खड़ा करने के लिए निरर्थक हाथ-पैर मारते देखा गया है। उसे लग रहा था कि इस छोटी लहर को बड़ी सुनामी में बदला जा सकता है, लेकिन वह इसमें सफल नहीं हुआ। हालांकि कैलेंडर का मुद्दा सामने आने के बाद कई स्तरों पर लोगों ने खुलकर अपना असंतोष जाहिर किया। दरअसल हमने देश में जनता के पैसों पर संस्थाओं, पुरस्कारों, भवनों और स्मारकों को मौजूदा और पूर्व नेताओं के नामों पर रखने का लंबा इतिहास देखा है। इसीलिए लोगों द्वारा इस कदम को भी इसी संशय की नजरों से देखा गया। जनता ने पूर्व में कई ऐसे उदाहरण देखे हैं जिससे उनके मन में विरोध के भाव पैदा हुए हैैं, लेकिन उसकी अभिव्यक्ति मोदी के कार्यकाल में हुई है। ऐसा इसलिए देखने को मिल रहा है, क्योंकि आज सवाल पूछने को लेकर उनके मन में किसी प्रकार का भय नहीं है। जबकि पूर्व में इस तरह के कदम को बिना किसी प्रश्न के स्वीकार लिया जाता था। ऐसे में सवाल पूछने की इस आजादी का स्वागत किया जाना चाहिए, क्योंकि एक लोकतांत्रिक देश में इस तरह का वातावरण अपरिहार्य है।
हालांकि यह तथ्य भी विचारणीय है कि ऐसा पहली बार नहीं हुआ है कि खादी ग्रामोद्योग के कैलेंडर से महात्मा गांधी गायब हुए हैं। प्रधानमंत्री कार्यालय की ओर से जारी बयान में कहा गया है कि पूर्व में सात बार कैलेंडर पर महात्मा गांधी की तस्वीर नहीं छपी है। साफ है कि दिग्भ्रमित विरोधियों द्वारा गांधी को हटाने का जो आरोप लगाया जा रहा है वह आधारहीन नजर आ रहा है। हमें पता होना चाहिए कि खादी वर्षों से ऊपर उठने के लिए संघर्ष कर रही थी। लिहाजा इसको पुनर्जीवित करने की आवश्यकता थी। प्रधानमंत्री मोदी ने यह काम बखूबी किया है। कहा जा सकता है कि वह जिस तरह से महिला सशक्तीकरण को बढ़ावा दे रहे हैं उसी तरह खादी को नई ऊंचाई पर पहुंचाने के लिए हरसंभव प्रयास कर रहे हैं। वह अपनी कोशिशों में सफल भी हो रहे हैं। जैसे कि आंकड़े बताते हैं कि मोदी द्वारा कमान संभालने के बाद खादी की बिक्री सात प्रतिशत से बढ़कर 34 प्रतिशत हो गई है। यह कहना गलत नहीं होगा कि खादी को आगे बढ़ाने के लिए ब्रांडिंग और मार्केटिंग के जरिये इसको धक्का देने की जरूरत है। यदि कॉरपोरेट जगत प्रधानमंत्री मोदी की तस्वीर को अपने उत्पादों को मशहूर बनाने के लिए बिना अनुमति ही प्रयोग करने का साहस कर सकता है तो खादी ग्रामोद्योग खादी की ब्रांडिंग करने के लिए ऐसा क्यों नहीं कर सकता है? और फिर मोदी पर उसका दावा भी वाजिब है।
यदि विपक्ष को इसमें किसी प्रकार की चाटुकारिता दिखती है तो वे लोग जो केंद्र और राज्यों में सत्ता में रहे हैं उन्हें जनता के पैसों से चल रही संस्थाओं का पुनर्मूल्यांकन करने और उनका पुन: नामकरण ( भूले-बिसरे स्वतंत्रता सेनानियों और क्षेत्रीय नेताओं के नाम पर) करने के लिए अच्छी भावना से एक प्रस्ताव देना चाहिए। यह सच्चे अर्थों में लोकतांत्रिक कदम होगा और इस प्रकार से इस विवाद का कुछ सुखद परिणाम सामने आएगा। यदि ऐसा होता है तो मैं दावे के साथ कह सकती हूं कि योग की तरह खादी भी जल्द ही दुनिया में छा जाएगी।
[ लेखिका अद्वैता काला, जानी-मानी स्क्रिप्ट राइटर और ब्लॉगर हैं ]