डॉ. एके वर्मा

मंगलवार को दिल्ली विधानसभा में आम आदमी पार्टी के एक विधायक ने नकली इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन यानी ईवीएम का प्रयोग कर यह दिखाने की कोशिश की कि कैसे उसके सॉफ्टवेयर, प्रोग्रामिंग और कोड में छेड़छाड़ कर किसी एक पार्टी के पक्ष में वोटिंग कराई जा सकती है। चुनाव आयोग के स्पष्टीकरण के बावजूद कुछ लोगों के मन में ईवीएम की निष्पक्षता पर संशय उपज सकता है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने चुनाव आयोग जैसी संवैधानिक संस्था की निष्पक्षता पर फिर से उंगली उठाने का काम किया। इसके पहले वह यहां तक कह चुके हैं कि चुनाव आयोग धृतराष्ट्र बन गया है, जो अपने बेटे दुर्योधन को साम दाम दंड भेद से सत्ता में पहुंचाना चाहता है। यह एक छिछला आरोप है। यह न केवल केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा और आयोग में मिलीभगत की ओर संकेत करता है, बल्कि चुनाव आयोग की प्रतिष्ठा को भी चोट पहुंचाता है। इसके पहले बीते मार्च में पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव नतीजों के बाद 16 पार्टियां ईवीएम में छेड़छाड़ की शिकायत लेकर चुनाव आयोग पहुंची थीं। उनकी शंकाओं का निवारण करने के लिए आयोग ने 12 मई को 55 दलों की बैठक बुलाई है। इसके साथ ही आयोग ने ईवीएम पर एक हैकाथन भी बुला रखी है। आयोग सभी को ईवीएम हैक करने का खुला अवसर देगा। आयोग ने इसके पहले 2009 में भी ईवीएम को हैक करने की चुनौती दी थी पर कोई सफल नहीं हो सका था। चुनाव आयोग के अनुसार 12 मई 2017 के बाद देश में सभी चुनाव ‘वोटर वेरिफायेबल पेपर ऑडिट ट्रेल’ (वीवीपैट) से लैस ईवीएम के जरिये होंगे जिसमें मतदाता को वोट डालने के बाद 7 सेकंड के लिए एक पर्ची दिखेगी जिसमें उसके प्रत्याशी का नाम और चुनाव चिन्ह दिखाई देगा। मार्च में संपन्न विधानसभा चुनावों में भी आयोग ने कुछ निर्वाचन क्षेत्रों में इसका प्रयोग भी किया था। मोदी सरकार ने 19 अप्रैल को 16 लाख 15 हजार वीवीपैट लैस ईवीएम खरीदने का निर्णय भी लिया, लेकिन क्या वीवीपैट लैस ईवीएम आरोपों के केजरीवाल मॉडल से निपट सकेंगी? वीवीपैट मशीन तो किसी मतदाता को यह दिखाएगी कि उसके द्वारा दबाए गए बटन और पर्ची में साम्य है, लेकिन केजरीवाल तो अनेक मतदान केंद्रों पर अपने कार्यकर्ताओं से कमल का बटन दबवा कर यह हंगामा भी करवा सकते हैं कि उनके पार्टी के लोगों के द्वारा बटन दबाने पर कमल की पर्ची निकल रही है। केजरीवाल स्वयं को एक अराजक स्वीकार कर चुके हैं। आखिर लोकतांत्रिक प्रक्रिया ऐसे अराजक से कैसे निपट सकेगी?
ईवीएम विवाद के अनेक पहलू हैं। सबसे पहला प्रश्न है कि क्या ईवीएम से छेड़छाड़ की जा सकती है? इसका उत्तर है हां, लेकिन इसी के साथ यह जानना भी महत्वपूर्ण है कि देश की प्रत्येक ईवीएम एक स्वतंत्र यूनिट है और हजारों या लाखों ईवीएम से छेड़छाड़ कर पाना संभव नहीं। 2014 के लोकसभा चुनावों में चुनाव आयोग ने एक लाख 70 हजार ईवीएम प्रयोग की थीं। क्या यह संभव है कि इतने बड़े पैमाने पर ईवीएम से छेड़छाड़ की जा सके? जिन देशों में ईवीएम कंप्यूटर से जुड़ी होती है और वे सभी एक-दूसरे से नेटवक्र्ड होती हैं वहां अगर कोई नेटवर्क ही हैक कर ले तो वह पूरे चुनाव परिणाम को प्रभावित कर सकता है, लेकिन भारत में हर ईवीएम स्वतंत्र है। न वह कंप्यूटर से जुड़ी है, न आपस में किसी नेटवर्क से। इसलिए ऐसे लाखों ईवीएम को हैक करना संभव नहीं। ईवीएम में केवल प्रोडक्शन के स्टेज पर छेड़छाड़ हो सकती है, लेकिन चुनाव आयोग उस बिंदु पर बहुत सख्त पहरेदारी करता है। कौन सी मशीन किस निर्वाचन क्षेत्र में जाएगी, यह अंतिम क्षणों में तय होता है और हर निर्वाचन क्षेत्र में ईवीएम पर पार्टी का क्रम बदल जाता है, क्योंकि उस पर प्रत्याशियों के नाम अंग्रेजी के वर्णमाला क्रम में लिखे जाते हैं और इसलिए यदि एक निर्वाचन क्षेत्र के ईवीएम में भाजपा प्रत्याशी तीसरे क्रम पर है तो अन्य विधानसभाओं की ईवीएम पर वह पहले, दूसरे, चौथे आदि क्रम पर हो सकता है।
महत्वपूर्ण यह नहीं कि ईवीएम के साथ छेड़छाड़ की जा सकती है या नहीं, यह है कि ईवीएम के साथ छेड़छाड़ हुई या नहीं? ईवीएम में गड़बड़ी और छेड़छाड़ में भी फर्क करना पड़ेगा। किसी भी मशीन में गड़बड़ी कई कारणों से आ सकती है और प्राय: आयोग को मतदान के दौरान ही अनेक मतदान केंद्रों पर वोटिंग मशीनें बदलनी पड़ती हैं। ऐसा लगता है कि जो दल ईवीएम को लेकर शोर मचा रहे हैं उनका इरादा लोगों को गुमराह करना अधिक है और इसीलिए वे संवैधानिक संस्था चुनाव आयोग पर उलटे-सीधे आरोप लगा रहे हैं। यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है। आखिर हमारे सामने विकल्प क्या है? क्या हम फिर मतपत्र की ओर लौटें। इस व्यवस्था में हमने अपराधियों और माफियाओं को बूथ लूटते और बूथ-कैप्चर करते देखा था? कुछ देशों जैसे आयरलैंड, नीदरलैंड, जर्मनी आदि ने ईवीएम को अपने यहां प्रतिबंधित किया है, लेकिन उन्होंने छेड़छाड़ के आधार पर नहीं वरन पारदर्शिता के आधार पर ईवीएम पर प्रतिबंध लगाया, क्योंकि लोग मतगणना को देख नहीं पा रहे थे। अमेरिका में आज जरूर मतपत्रों का प्रयोग होता है, लेकिन वहां भी दशकों तक मैकेनिकल लीवर मशीन (1892), पंच कार्ड मशीन (1960) और ईवीएम (1975) से वोटिंग होती रही। बाद में उसे बंद कर दिया गया, क्योंकि उनकी मशीनें आपस में जुड़ी थीं और उनको हैक करना सरल था। विश्व में लगभग 31 देशों ने ईवीएम से मतदान का प्रयोग किया है। अभी भी 20 देशों में उनका प्रयोग जारी है। भारत में तो मतदाताओं की संख्या के दृष्टिकोण से भी ईवीएम का कोई विकल्प नहीं। 2014 चुनावों में मतदाताओं की संख्या साठ करोड़ से अधिक थी जो अमेरिका की कुल जनसंख्या 32 करोड़ से भी ज्यादा है। अगले 25-30 वर्षों में भारतीय मतदाताओं की संख्या और ज्यादा हो जाएगी। ऐसे में मतपत्रों से चुनाव कराना न केवल प्रशासकीय दृष्टि से अव्यवहारिक वरन पर्यावरणीय दृष्टि से भी अनुचित होगा।
सबसे पहले 1982 में केरल के विधान सभा चुनावों में ईवीएम का प्रयोग पायलट प्रोजेक्ट के रूप में किया गया था। तब कम्युनिस्ट पार्टी के प्रत्याशी रमण पिल्लई ने उसका विरोध किया, लेकिन वह जीत गए तो हारे हुए कांग्रेसी प्रत्याशी ने कोर्ट में ईवीएम के विरुद्ध अपील की। उच्च न्यायालय में वह हारे, लेकिन 1984 में सर्वोच्च न्यायालय में इस आधार पर जीत गए कि जनप्रतिनिधित्व कानून(1951) और कंडक्ट ऑफ इलेक्शन रूल्स (1961) में ईवीएम का कोई प्रावधान नहीं था। 1988 में संसद ने जनप्रतिनिधित्व कानून में परिवर्तन करके ईवीएम के प्रयोग को कानूनी बनाया। चुनाव आयोग लोकतंत्र को संचालित करने की सशक्त संस्था है। हाल के वर्षों में उसकी प्रतिष्ठा बढ़ी है। उसकी सराहना दुनिया भर में होती है। क्या जिस प्रकार न्यायालय पर आधारहीन आरोप लगाने पर अवमानना का मुकदमा चलाया जाता है उसी प्रकार चुनाव आयोग को भी संविधान से ऐसी कोई उन्मुक्ति मिलनी चाहिए? संभवत: नहीं। विधिक बंदिशों से लोकतांत्रिक समस्याएं घटने की बजाय बढ़ती हैं। जरुरत है कि हम अपनी राजनीतिक संस्कृति को और विकसित करें और समाज को राजनीतिक रूप से और प्रबुद्ध बनाएं जिससे लोकतांत्रिक आलोचना में तो पैनापन आए, लेकिन उसका आरोपात्मक स्वर मंद हो सके।
[ लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं सेंटर फॉर द स्टडी अॉफ सोसायटी एंड पालिटिक्स के निदेशक हैं ]