मृणाल पाण्डे

हिंदी पट्टी के राजनेता जनता को यही डर दिखाकर अरसे से उनके वोट अपनी झोली में डालते आए हैं कि वे हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाएंगे ताकि वह अंग्रेजी के महानद में सिमटकर गायब न हो जाए। उत्तर प्रदेश फतह के बाद हिंदी पट्टी का बाजार भाव और भी तेजी से ऊपर उछला तो नेता, राजनीतिक दलों के चहेते अखबार, फिल्मकार और चैनल सभी अपने-अपने चमड़े के सिक्के हिंदी में चलाने को आतुर हो उठे हैं। इनमें राजनेता चूंकि सबसे अधिक सामथ्र्यवान हैं तो उन्होंने दो चरणों वाला नुस्खा अपनाया है। पहले तो अंग्रेजी में भरपूर ब्रांडिंग कराकर अंग्रेजी बाजार के अंधे संप्रभुओं और विदेशी मित्रों के बीच सत्तारूढ़ दल को हिंदी का इकलौता पंडा घोषित कराया। फिर चुनाव की पूर्वसंध्या पर हिंदी पट्टी से कहा गया कि भारत की असली जनभाषा हिंदी के प्रसार की इकलौती युक्ति उसे राष्ट्रभाषा का दर्जा दिलाना है। तदोपरांत हिंदी समिति की कई विवादास्पद संस्तुतियों को राष्ट्रपति जी के हस्ताक्षर सहित अंतिम फैसले के लिए पेश कर दिया गया। बताया गया है कि यह सुझाव स्वीकृत होने पर सरकारी कामकाज में हिंदी को देश की इकलौती सेतुभाषा और फिर जल्द ही राष्ट्रभाषा का दर्जा मिल जाएगा। हिंदी राजनीतिक आश्रय पाएगी तभी वजूद बचा पाएगी। ऐसा मानने वालों ने दिल्ली में बैठी शीर्ष सरकारी हिंदी समिति के सुझावों पर माननीय राष्ट्रपति जी से हस्ताक्षर कराकर जारी क्या किया मानो भिंड का एक छत्ता छेड़ दिया गया।
इस घोषणा के बाद कि अब देश के सभी विशिष्टातिविशिष्ट जन सार्वजनिक मंच से हिंदी में ही भाषण देंगे और दक्षिण भारत के सभी राजमार्गों पर हिंदी और अंग्रेजी में नाम एवं निर्देश लिखे जाएंगे। दक्षिण और पूर्वी राज्यों से लगातार प्रत्याशित गुस्सैल हुंकारें उठ रही हैं। चूंकि तमिलनाडु में जयललिता के निधन के बाद अन्नाद्रमुक और द्रमुक के बीच गहरा सत्ता संघर्ष जारी है, इसलिए इस घोषणा ने प्रतिपक्षी द्रमुक के नेता स्टालिन को भी हिंदी थोपे जाने का नारा बुलंद कर तीन दशक पुराने हिंदी विरोध को शह देने वाला असीमित गोला बारूद भी मुहैया करा दिया है। एक अरसे से (हिंदी साहित्य, हिंदी फिल्में, संगीत, नौकरियों के लिए देश भर में हिंदी क्षेत्र के युवाओं की आवाजाही और जयललिता सरीखी सुलझी राजनेता की उपस्थिति से) राजकीय भाषा के मुद्दे पर उत्तर और दक्षिण, खासकर दिल्ली और चेन्नई के बीच जो सीजफायर की सुखद अघोषित स्थिति बन गई थी, वह रातोरात बिला गई दिख रही है। हिंदी विरोध की सूख चली सनातन धारा में जल बहता देख कर हाथ धोने को तमाम पुराने हिंदी विरोधी राज्य और मीडिया सभी फिर आन खड़े हुए हैं। क्या नेतागण भूल गए थे कि राजनीति में आग लगाने के बाद जमालो बन कर दूर खड़े रहना मुमकिन नहीं होता और अब आग धधकने पर बाल्टी खोजी जा रही है?
गैर हिंदीभाषी दो भलेमानुस किरण रिजिजू और शेषाद्रिचारी सामने आकर कह गए कि सरकार का उद्देश्य दक्षिण भारत की भावनाएं आहत करना या उस पर हिंदी थोपना नहीं, बल्कि हिंदी को प्रोत्साहित करना मात्र था। शायद गलत शब्दों से भ्रांति उपजी हो। असली आशय हिंदी को राष्ट्रभाषा नहीं, राजभाषा का दर्जा दिलाना है, लेकिन उनसे कहने का मन करता है, बड़ी देर कर दी मेहरबां आते-आते। केंद्र से जो नाराजगी थी उसमें बैठे-बिठाए इजाफा तो हो ही गया। अब आप शब्दों के मतलब बखानें भी तो क्या?
जैसे हालात हैं, डर है कि कहीं गोरक्षा मुद्दे की ही तरह सरकार दशा संभाले इससे पहले हिंदी के स्वघोषित साधक कपड़ा फाड़ किस्म की गालियां बकते हुए अंग्रेजी का चक्का जाम करा हिंदी प्रचार को एक समाजवादी जिहाद की शक्ल न दे दें। हिंदी की सरकारी संस्थाओं से कई ऐसे मनीषी बुद्धिमान जुड़े हुए हैं जिन्हें जीवंत तर्क के बजाय पुराने विचारों की राख से पोत कर एक बाधाहरण ताबीज की तरह संसद से सड़क तक सरकारी जजमानों की कलाई पर बांध मोटी सुविधाएं बटोरने की आदत है। शेष भाषाओं के भले लोग चुपचाप अपनी भाषा में लिखते पढ़ते रचते हों, मगर इन लोगों ने हिंदी में काम करना राष्ट्रसेवा और उसके तमाम लेखकों पर हिंदी सेवी या साधक का ठप्पा लगा रखा है। सच तो यह है कि हिंदी को राष्ट्रीयता के दिव्य जोश का प्रतीक मानने-मनवाने के दिन अब लद चुके हैं। हिंदी का गौरव इससे नहीं बढ़ेगा कि वह कितने बड़े भूखंड की भाषा है, बल्कि इससे बढ़ेगा कि वह किस हद तक औसत भारतीय के लिए ताजगीभरी मौलिकता और हिंदी पट्टी की जनभाषाओं की समृद्धि का प्रतीक है। बड़े सितारों और चकरा देने वाले बजट के बावजूद नूर या गुजारिश सरीखी हिंदी फिल्में बॉक्स ऑफिस पर औंधे मुंह गिरीं और छोटे बजट की ओये लक्की या मसान हिट रहीं तो वजह यह थी कि मिडियोकर और जड़विहीन निर्माताओं की अटपटी हिंदी में अंग्रेजी फिल्मों की बुद्धिहीन नकल दर्शकों को नहीं जमती। महानगरों में पले और अकूत पैसा कमाने की ललक से भरे कई युवा फिल्मकार जब हॉलीवुड की फिल्मों के आगे खड़े होते हैं तो उन्हें बौनेपन का अहसास होता है, पर पश्चिमी चुनौती का सही जवाब यह है कि वे उन फिल्मों को अपनी निजी पहचान के हथियारों से पछाड़ें, जैसा दूसरी भारतीय भाषाओं में सत्यजित रे, ऋत्विक घटक, गिरीश कासरवल्ली या अडूर गोपालकृष्णन ने सफलतापूर्वक किया है। यही बात साहित्य पर भी लागू होती है। दुनिया में उच्च अध्ययन की शर्त यह है कि लोग-बाग एकाधिक भाषाएं पढ़ें। इससे बाहर देखने के कई नए दरवाजे खुलते हैं और क्षितिज का विस्तार होता है, लेकिन बाहरी भाषा और साहित्य के असर को बुद्धिमत्तापूर्ण तरीके से अपने भीतर आत्मसात कर पाना भी उतना ही जरूरी है जितना खुद अपनी भाषा की जड़ों को सही तरह समझना और उन्हें मजबूत बनाना। हमारी पूर्ववर्ती पीढ़ी बोलियों की ताकत पहचानती थी। आज हिंदी में उनका प्रयोग बहुत कम हो रहा है। कितने लोग महापंडित हजारी प्रसाद द्विवेदी की भोजपुरी मिश्रित हिंदी का रस लेते हैं-
‘गोपियां नवेली बरसाने की हवेली से, पिपीलिका की रैली जैसी कढ़ती चली गई।
रूप खलिहान जैसी ब्रज गलियान जैसी, नोटिसी नीलाम-पै-सी चढ़ती चली गई।
मृगछालिनि सों, कुंकुम गुलालनि सों, ढोलक सी ब्रज भूमि मढ़ती चली गई।
राधा क्लेरियन कॉल सुनि ग्वाल बाल माल, ग्रैंड ट्रंक रोड जैसी बढ़ती चली गई।’
दरअसल जो सवाल पूछने लायक है वह यह कि क्या वजह है कि हिंदी को देशव्यापी बनाने का काम सारे सरकारी विभागों, हिंदी कंप्यूटरों, भारी सरकारी खरीद के बाद भी बिना वैमनस्य फैलाए कभी भी अधिक दूर नहीं जा सका, जबकि भाषा वारिधि में डूबकर नई-नई तरह से रचना करनेवाले साहित्यकारों यथा महादेवी जी, निराला, अमृतलाल नागर, शिवानी या निर्मल वर्मा ने सरकारी धक्कमपेल से दूर रह कर भी संघर्ष समझौते का एक सुंदर सहज संसार अखिल भारतीय स्तर पर हिंदी के लिए बना लिया? दरअसल इस सवाल में ही जवाब अंतर्निहित है।
[ लेखिका प्रसार भारती की पूर्व प्रमुख एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं ]