शिव कुमार राय

हमारा देश गजब की रचनात्मक प्रतिभाओं से भरा है। यकीन न आए तो आप सड़क पर निकलिए, आपको इस प्रतिभा प्रस्फुटन के तमाम नजारे बाइक, कार पर लिखे स्लोगन में मिल जाएंगे। इसी तरह ऑटो से लेकर ट्रकों के पीछे भी बहुत कुछ ऐसा लिखा मिल जाता है जो दूसरों को बताने का कम, चेताने का काम ज्यादा करता है। लिखने वाले की पूरी कोशिश यह बताने की रहती है कि हम भी कुछ हैं भाई। हमारा पूरा-पूरा सम्मान होना चाहिए। यह अलग बात है कि कई बार लिखने का अंदाज कुछ ऐसा रहता है कि साफ पता चलता है कि यह कहने को कोशिश हो रही है कि हमें हल्के में न लो, हमसे डरो भाई।
कुछ स्लोगन तो क्षेत्र विशेष में पाए जाते हैं मसलन उनमें अपने जातीय गौरव का बड़े शान से जयघोष किया जाता है। इसे पढ़ते ही आपको लग जाएगा कि आप इन विशेष लोगों की बहुलता वाले इलाके से गुजर रहे हैं। इसलिए रास्ता खाली करिए और पंगा लेने के बारे में सोचिए भी मत। ये स्लोगन राजनीतिक दलों के सत्ता में आने और बाहर होने के हिसाब से बदलते भी रहते हैैं- ठीक वैसे ही जैसे एक समय यूपी में सपा के सत्ता से जाने पर बसपा के झंडे दिखने लगते थे और बसपा के गद्दी से उतरने पर सपा के।
कुछ स्लोगन वर्दी वालों के लिए सुरक्षित हैं। मसलन पुलिस, आर्मी, पीएसी आदि-आदि। गाड़ी सरकारी हो, प्राइवेट हो, सिपाही की हो, हवलदार की हो या बड़े अफसर की हो, बस नाम ही काफी है। पुलिस लिख दिया तो लिख दिया, आर्मी लिख दिया तो लिख दिया, पूरी फोर्स अपनी है जी। सम्मान तो देना ही पड़ेगा। कई बार तो लिखते भी नहीं, सिर्फ फोर्स का कलर ही, डिजाइन ही गाड़ी के किसी कोने में पोत दिया। बाकी समझने वाले खुद समझें। जैसे किसी शहर से गुजरें और गाड़ी पर एक आयत में आधा लाल, आधा नीला पुता नजर आ जाए तो समझ लीजिए कि आप पुलिस के किसी कर्मचारी, अधिकारी या उसके परिवारी जन से मुखातिब हैं। लिहाजा थोड़ा दूरी बनाकर रखिए। वरना सावधानी हटी, दुर्घटना घटी।
क्षेत्र विशेष हो गया, फोर्स विशेष हो गया तो भला व्यवसाय विशेष में लगे लोग क्यों पीछे रह जाते? यह अलग बात है कि इसमें कुछ ही व्यवसाय के लोगों ने अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन पर्याप्त मात्रा में किया है। इनमें से भी शायद सबसे आगे हैं विधि व्ययसाय में लगे लोग यानी एडवोकेट। उनकी मोटरसाइकिल और कार के पीछे या आगे लिखा रहेगा-एडवोकेट। कुछ अति समझदार और प्रतिभाशाली लोग आगे पीछे दोनों तरफ लिखे रहते हैं ताकि कोई शंका और संशय न रहे। अब जो वकालत नहीं करते और कोर्ट में काम करते हैैं वे क्यों पीछे रहें। सो, लो जी उन्होंने भी लिख मारा-‘कोर्ट’। यह शोध का विषय है कि गाड़ियों पर केवल ‘कचहरी’ लिखा हुआ क्यों नहीं मिलता?
आजकल बहुत सी गाड़ियों पर प्रेस भी लिखा मिल जाएगा। ऐसे गाड़ी सवार को प्रिंटिंग प्रेस का कर्मचारी समझ कर कतराने की कोशिश ठीक नहीं है। यह गाड़ी है मीडिया के लोगों की। लिहाजा लोड पूरा लेना होगा। बाकी व्यवसायों मसलन अध्यापक, व्यापारी, दुकानदार, कलाकार आदि लोगों को शायद समाज के मिजाज पर पूरा भरोसा होता होगा इसीलिए वे अपनी गाड़ियों को बेनाम ही रहने देते हैं और चुपचाप आपके बगल से गुजर जाते हैं और आप उनका वैसा परिचय लेने से वंचित रह जाते हैं जिसमें दूसरे खासी महारत रखते हैं।
राजनीति में लगे लोग तो सेवा में लगे रहते हैं। इसलिए उन्हें तो अपने बारे में बताना ही पड़ता है, वरना आप उनकी सेवा से वंचित रह जाएंगे। सांसद, विधायक, ब्लॉक प्रमुख, जिला पंचायत अध्यक्ष आदि तो सहज लिखा मिल जाएगा, मगर मामला तब गड़बड़ हो जाता है जब आप भूतपूर्व हो जाते हैं। अब नंबर प्लेट कौन बदलवाने जाए तो सांसद, विधायक आदि इतना बड़ा लिखा रहता है कि भूतपूर्व लिखने की जगह ही नहीं रहती, ऐसे में कोने में छोटा सा भू.पू. लिख कर जता दिया जाता है कि हम भू.पू. जरूर हो गए हैं, मगर सेवा अभी भी अभूतपूर्व तरीके से जारी है। इसी तरह अगर गाड़ी पर केवल छात्र लिख दिया जाए या नेता लिख दिया जाए तो कोई बात नहीं बनती मगर यही चीज जब मिला कर लिख दी जाए यानी ‘छात्रनेता’ तो बात में वजन आ जाता है। छात्रनेता हैं, इसलिए विशिष्ट छात्र हैं, लिहाजा सम्मान तो बनता है।
एक परिचय है पदनाम का। मसलन एसडीएम, तहसीलदार, आरटीओ आदि- आदि। गाड़ी सरकारी हो तो पदनाम के साथ जगह भी लिखी हुई पाई जाएगी, मगर प्राइवेट गाड़ियों पर यह रिस्क नहीं लिया जा सकता, क्योंकि रोज-रोज ट्रांसफर होता रहता है और सम्मान तो हर जगह चाहिए। बहरहाल लाल बत्ती हटाने के आदेश का तो भाई लोगों ने गजब तोड़ निकाला है। हम तो सम्मान ले के रहेंगे। कोई चाहे कुछ भी कहे। वैसे आपको क्या लगता है कि अगर गाड़ी पर कवि, लेखक और शायर लिख दिया जाए तो ज्यादा तो नहीं हो जाएगा? वैसे यह बिरादरी भी कम बड़ी नहीं है। ऐसे में इनमें यह भाव आने से सड़कों का नजारा और दिलचस्प हो जाएगा।

[ हास्य-व्यंग्य ]