संजय गुप्त

उत्तर प्रदेश में भाजपा की अभूतपूर्व जीत के बाद यह एक तरह से तय था कि अयोध्या में राम मंदिर निर्माण की आम जनता की आकांक्षा नए सिरे से परवान चढ़ेगी और भाजपा भी आम लोगों की सदियों पुरानी इस इच्छा को पूरा करने की दिशा में आगे बढ़ेगी। अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण भाजपा का एक बुनियादी मुद्दा रहा है। लगभग प्रत्येक चुनाव में पार्टी ने अपने घोषणापत्र में किसी न किसी रूप में मंदिर निर्माण के अपने संकल्प को दोहराया, किंतु हाल के वर्षों में राजनीतिक बाध्यताओं के कारण यह मसला उसके एजेंडे में शीर्ष पर नहीं रहा। अयोध्या में विवादित ढांचा गिराए जाने के बाद से देश इस बात का इंतजार कर रहा है कि हिंदू और मुसलमान इस मुद्दे को या तो बातचीत के जरिये सुलझाएं या उच्चतम न्यायालय इसका फैसला करे। पिछले दिनों भाजपा के नेता सुब्रमण्यम स्वामी की याचिका पर जब उच्चतम न्यायालय ने यह कहा कि वह अयोध्या विवाद के समाधान के लिए मध्यस्थता करने के लिए तैयार है तो पूरे देश ने यह महसूस किया कि यह मामला सुलझ सकता है, लेकिन गत दिवस सुप्रीम कोर्ट ने मामले में जल्द सुनवाई से इन्कार कर एक तरह से इस मामले को ठंडे बस्ते में डाल दिया। इससे लोगों का निराश होना स्वाभाविक है।
अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण न केवल करोड़ों लोगों की आस्था का विषय है, बल्कि वह देश की सांस्कृतिक विरासत का एक प्रतीक भी है। कोई भी देश अपनी संस्कृति की जड़ों से कटकर अपनी पहचान नहीं बना सकता। भारत की संस्कृति में राम रचे-बसे हैं। राम भारतीयों के आराध्य ही नहीं, भारत की सांस्कृतिक अस्मिता का भी प्रतिनिधित्व करते हैं। हर नागरिक फिर वह चाहे किसी भी पंथ से जुड़ा हो, किसी न किसी रूप में राम से भावनात्मक रूप से जुड़ा है। सभी यह भी जानते हैं कि देश की सांस्कृतिक विरासत को एक के बाद एक विदेशी आक्रमणकारियों द्वारा कुचला गया। उन्होंने भारत को लूटने-कुचलने के लिए जानबूझकर मंदिरों को निशाना बनाया। इनमें अयोध्या का रामजन्मभूमि मंदिर भी है। बाबर के सेनापति मीर बकी ने इस मंदिर को हिंदुओं को एक समुदाय के रूप में प्रताड़ित और हतोत्साहित करने के लिए तोड़ा और उस पर मस्जिद का निर्माण कराया। जब तक देश में मुगलों का राज रहा तब तक देश के हिंदू मजबूरी में अपने अपमान की प्रतीक इस मस्जिद को सहते रहे। बाद में अंग्रेजों ने यथास्थिति कायम रखने और दोनों समुदायों को संतुष्ट रखने पर जोर दिया। इस तरह विवाद अनसुलझा ही रहा। आजादी के बाद तत्कालीन गृह मंत्री सरदार पटेल ने विदेशी आक्रमणकारियों द्वारा किए गए ध्वंस की सुधि ली। उन्होंने सोमनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार कराया। इसके पहले कि वह राम जन्म मंदिर के मामले में कोई पहल कर पाते, उनकी मृत्यु हो गई। इसके बावजूद हिंदू समुदाय शांत नहीं बैठा। उसने विवादास्पद ढांचे में रामलला की मूर्तियों को विराजमान किया और पूजा अर्चना शुरु कर दी।
1980 के दशक में जब रामजन्मभूमि मंदिर निर्माण की मांग तेज हुई तो शाहबानो मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटने वाली कांग्रेस सरकार ने हिंदुओं को संतुष्ट करने के लिए पहले रामजन्मभूमि मंदिर के गेट के ताले खुलवाने में मदद की, फिर विवादित स्थल के पास राम मंदिर का शिलान्यास कराया। हिंदू संगठन इससे संतुष्ट नहीं हुए। वे रामजन्मभूमि स्थल पर ही मंदिर निर्माण की मांग पर अडिग रहे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा ने भी इस मांग को अपना खुला समर्थन प्रदान किया। भाजपा जैसे-जैसे राजनीतिक रूप से सशक्त होती गई वैसे-वैसे वह इस मामले में जनभावनाओं को एकजुट करने में सफल होती गई। परिणाम यह हुआ कि रामजन्म भूमि मंदिर के लिए जनांदोलन हुआ। इस आंदोलन के दौरान बेकाबू भीड़ ने 1992 में अयोध्या में विवादित ढांचा तोड़ दिया। 2010 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एक तरह से राम मंदिर के पक्ष में फैसला दिया, जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगा दी। पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने सुब्रमण्यम स्वामी की याचिका पर पहले तो बातचीत से मामले को हल करने जरूरत जताई और स्वंय मध्यस्थता करने की पेशकश की, फिर यह कहकर लोगों को निराश किया कि इस मामले की जल्द सुनवाई की आवश्यकता नहीं। पता नहीं वह कब इस मामले की सुनवाई करेगा, लेकिन बातचीत से मामले को सुलझाने की संभावना अभी भी बनी हुई है।
हालांकि पुरातत्व विभाग के सर्वेक्षण में विवादित ढांचे के नीचे मंदिर होने के प्रमाण
मिले और यह भी एक तथ्य है कि इस ढांचे में 1934 के बाद से कभी भी नमाज नहीं की
गई, फिर भी कुछ मुस्लिम नेता मस्जिद के लिए अड़े हैं। यह तब है जब शरिया के अनुसार मंदिर वाले स्थान में नमाज नहीं हो सकती। मुस्लिम समुदाय से यह अपेक्षा अस्वाभाविक नहीं कि वह अयोध्या मामले में अपने रुख पर फिर से विचार करे और कथित सेक्युलर दलों और बुद्धिजीवियों के झांसे में न आए। सेक्युलरिज्म के नाम पर मुस्लिमों पर इसके लिए दबाव बनाया जा रहा कि वे अयोध्या मामले का समाधान न होने दें और अपने रुख पर अड़े रहें। कथित सेक्युलर दल हिंदुओं को भी यह घुट्टी पिला रहे हैं कि जब विकास की रफ्तार थम गई हो और पिछड़ापन बढ़ता जा रहा हो तब मंदिर का प्रश्न उठाना सही नहीं। नि:संदेह विकास और जनकल्याण के विषय सबसे अधिक महत्वपूर्ण हैं, लेकिन प्रत्येक समाज की कुछ सांस्कृतिक आवश्यकताएं भी होती हैं। आखिर विकास और जनकल्याण के कार्यों के साथ-साथ सांस्कृतिक विरासत के सवाल क्यों नहीं हल किए जा सकते? भौतिक विकास के साथ ही आत्मिक सुख, शांति और सांस्कृतिक समृद्धि का भी बराबर महत्व है। भारत एक धार्मिक देश है, जहां धार्मिक-सांस्कृतिक चेतना समाज का प्राणतत्व है।
भाजपा के मुस्लिम प्रकोष्ठ ने मुस्लिम समुदाय को यह समझाने की कोशिश की है कि वह भारत की सांस्कृतिक विरासत और अस्मिता के प्रतीक अयोध्या, काशी और मथुरा के संदर्भ में करोड़ों लोगों की भावनाओं को समझे और इतिहास में जो गलती हुई उसे ठीक करने में सहयोग दे। भाजपा करीब 15 वर्षों से उत्तर प्रदेश की सत्ता से दूर थी। इसके पहले जब केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली राजग सरकार बनी थी तो भाजपा और उसके सहयोगी दलों के बीच गठबंधन इसी शर्त पर हुआ था कि वह अयोध्या में राम मंदिर निर्माण पर जोर नहीं देगी। आज स्थिति भिन्न है। केंद्र में भाजपा की सरकार के पास पूर्ण बहुमत है तो उत्तर प्रदेश में भी पार्टी ऐतिहासिक कामयाबी हासिल करने में सफल रही है। इन स्थितियों में भाजपा के लिए अपने घोषणापत्र से पीछे हटने का कोई मतलब नहीं। यह समय की मांग है कि भाजपा अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के लिए सक्रिय होकर पहल करती रहे, लेकिन इसके साथ ही उसे यह भी सुनिश्चित करना होगा कि ऐसी कोई पहल सामाजिक सौहाद्र्र को कायम रखते हुए की जाए। चूंकि यह मामला संवेदनशील है इसलिए योगी सरकार को इसके लिए सतर्क रहना होगा कि किसी तरह का तनाव न पैदा होने पाए। मर्यादा पुरुषोत्तम राम का मंदिर मर्यादाओं को पालन करके ही बनना चाहिए।

[  लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं  ]