भौतिकवादी समाज की कुरीतियों में काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार आदि मनोविकार मनुष्य केमन पर अधिकार बनाए हुए हैं और अवसर पाते ही अपना दुष्प्रभाव दिखाने लगते हैं। बड़े से बड़े महात्मा हों या उच्चाधिकारी आत्मसंयम के अभाव में अपनी प्रतिष्ठा खो बैठते हैं। ये मनुष्य जीवन में अनेक बाधाएं डालकर उसे निराशपूर्ण बना देते हैं। इनकी प्रतिद्वंद्विता में आत्मसंयम का सहारा ले लिया जाए तो मनुष्य जीवन की सफलता में संदेह नहीं रहता। इन पर काबू पाना या अपने को वश में करना जगत को जीत लेना है। साधारण मनुष्य की तो बात ही क्या बड़े-बड़े सम्राट भी काम के अधीन हो आत्मसंयम को तिलांजलि दे डालते हैं और मुश्किल में फंस जाते हैं। इतिहास प्रमाण है कि गांधीजी ने क्रोध पर नियंत्रण करके प्रेम और अहिंसा के अस्त्रों द्वारा अंग्रेजी साम्राज्य का अंत किया। बुद्ध ने राजसी वैभव के मोह और लालच को त्यागा तभी वह सत्य की साधना कर सके। जो व्यक्ति इंद्रियों के दास होते हैं वे इंद्रियों की इच्छाशक्ति पर नाचते हैं। संयमहीन पुरुष सदा उत्साह-शून्य, अधीर और अविवेकी होते हैं। इसलिए उन्हें क्षणिक सफलता भले मिल जाए, पर अंतत: उन्हें बदनामी और पराजय ही मिलती है। आत्मसंयमी व्यक्तियों में सर्वदा उत्साह, धैर्य और विवेक रहता है जो उनकी सफलता की राह तय करते हैं।
मानव की सबसे बड़ी शक्ति मन है इसलिए वह मनुज है। मन की शक्तिअभ्यास है, विश्राम नहीं। इसलिए तो मन मनुष्य को सदा किसी न किसी कर्म में रत रखता है। आत्मसंयम को ही मन की विजय कहा गया है। गीता में मन विजय के दो उपाय बताए गए हैं-अभ्यास और वैराग्य। यदि व्यक्ति प्रतिदिन त्याग या मोह मुक्ति का अभ्यास करता रहे तो उसके जीवन में असीम बल आ सकता है। यह कुछ महीने की देन नहीं होती है, बल्कि एक लंबे समय की जरूरत है। फिर तो दुनिया उसकी मुट्ठी में होगी। एक बार मोह-माया से विरक्त हो जाएं तो वैराग्य मिल जाएगा। भारत में आक्रमणकारी शताब्दियों तक लड़ाई जीत कर भी भारत को अपना नहीं सके, क्योंकि उनके पास नैतिक बल नहीं था। शरीर के बल पर हारा शत्रु बार-बार आक्रमण करने को उद्धत होता है, परंतु मानसिक बल से परास्त शत्रु स्वयं-इच्छा से चरणों में गिर पड़ता है। इसलिए तो हम प्रार्थना करते हैं कि हमको मन की शक्ति देना, मन विजय करें, दूसरों की जय से पहले खुद की जय करें।
[ कविता विकास ]