सी उदयभास्कर

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने बीते छह दिसंबर को एक बड़ा कूटनीतिक दांव चला। उन्होंने यरुशलम को इजरायल की राजधानी के रूप में मान्यता दे दी। उनके इस कदम के बाद दुनिया भर में भारी उथल-पुथल मच गई। यहां तक कि अमेरिका के कुछ पुराने और बेहद करीबी मित्र देशों ने भी इस पर त्योरियां चढ़ा लीं। इसके चलते संयुक्त राष्ट सुरक्षा परिषद जैसे वैश्विक मंच पर अमेरिका को एक तरह से अलग-थलग होना पड़ा। सुरक्षा परिषद के पांच स्थाई सदस्यों में शामिल ब्रिटेन और फ्रांस के मुताबिक यह तनाव बढ़ाने वाला उतावलेपन में उठाया गया कदम है जिसको लेकर उनकी अपनी आपत्तियां हैं। उन्होंने यह संकेत भी दिए कि अमेरिका में अपने मतदाता वर्ग को खुश करने के लिए ही ट्रंप ने यह कदम उठाया। इन दोनों स्थाई सदस्यों ने ही नहीं, बल्कि स्वीडन और इटली जैसे सुरक्षा परिषद के अस्थाई सदस्यों ने भी अमेरिका के इस फैसले पर विरोध में ब्रिटेन और फ्रांस के सुर में ही सुर मिलाया। विसंगति यही रही कि दुनिया की प्रमुख ताकतों में से केवल भारत की प्रतिक्रिया अपेक्षाकृत सीमित रही और ट्रंप के इस फैसले की आलोचना करने में भारत का रवैया यूरोपीय संघ जितना सख्त भी नहीं रहा, लेकिन इस तथ्य से भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि भारत ने अमेरिका के इस कदम का समर्थन भी नहीं किया। फलस्तीन के विरोध पर आठ दिसंबर को बुलाई गई सुरक्षा परिषद की बैठक भी खासी हंगामाखेज रही। सभी स्थाई और अस्थाई सदस्य ट्रंप के इस निर्णय पर बेहद कुपित थे और स्वीडन ने तो अमेरिका के इस फैसले को अंतरराष्ट्रीय कानूनों का मखौल उड़ाने वाला बताया। प्रमुख अरब देशों और बड़े मुस्लिम देशों ने ट्रंप के इस फैसले की कड़े स्वर में निंदा की। विशेषकर तुर्की और इंडोनेशिया ने इसकी तीखी आलोचना की।


फलस्तीन और लेबनान में सड़कों पर विरोध प्रदर्शन हुए तो रविवार 10 दिसंबर को यरुशलम में एक फलस्तीनी नागरिक ने इजरायली सुरक्षा गार्ड को निशाना बनाने का प्रयास भी किया। रविवार को ही अरब देशों के विदेश मंत्रियों की बैठक भी हुई जिसमें अमेरिका से यरुशलम पर अपना यह फैसला वापस लेने की मांग की गई, लेकिन उनकी मांग पर कोई विचार नहीं होना था और बाद में हुआ भी यही। यहां यह गौर करना भी जरूरी है कि भले ही इस मामले पर जमकर शब्द बाण चलाए गए हों और तीखी बयानबाजी हुई हो, लेकिन किसी भी प्रमुख अरब या मुस्लिम देश ने अमेरिका के खिलाफ राजनयिक विरोध का बिगुल नहीं बजाया या फिर किसी ने भी अमेरिकी राजधानी वाशिंगटन डीसी से अपने राजदूत को वापस नहीं बुलाया।
यह दर्शाता है कि फलस्तीन-यरुशलम मुद्दे पर इस्लामिक नेतृत्व ने बड़ा व्यावहारिक और संतुलित दृष्टिकोण अपनाया। इस क्षेत्र और विशेषकर अरब देशों के इस रुख की मुख्य रूप से दो वजहें हैं। पहली तो यही कि अरब दुनिया के नेता विशेषकर सुल्तान, अमीर और तानाशाह अमेरिका और उसमें भी खासतौर से पेंटागन यानी अमेरिकी रक्षा मंत्रालय से मिलने वाली मदद पर बुरी तरह आश्रित हैं। दूसरी वजह इस्लामिक दुनिया में ईरान का लगातार बढ़ता उभार है जिसने क्षेत्रीय राजनीति में सऊदी नेतृत्व वाले सुन्नी खेमे को बहुत बेचैन कर दिया है। सीरिया इसकी ताजा मिसाल है जहां क्षेत्रीय और वैश्विक ताकतों ने बड़ा विरोधाभासी रुख अख्तियार किया हुआ है। कुछ मामलों में तो सुन्नी नेताओं को अपने ईरान विरोधी रवैये के कारण इजरायल अपना मित्र नजर आया। उनकी नजर में तेलअवीव से बड़ा दुष्ट तेहरान है।
यही वजह है कि यरुशलम को लेकर ट्रंप की घोषणा से अरब जगत में किसी खास राजनीतिक तनातनी के आसार कम ही मालूम पड़ते हैं। हालांकि तुर्की के राष्ट्रपति रेसेप तैयप एर्दोगान ने जरूर अमेरिका के खिलाफ कुछ कड़े कदमों का एलान किया है। तुर्की इस समय इस्लामिक देशों के संगठन यानी ओआइसी का चेयरमैन है और ट्रंप के इस फैसले से निपटने के उपाय तलाशने के लिए उसने ओआइसी की विशेष बैठक भी आहूत की। फलस्तीनी नेतृत्व को भी यह बात बखूबी मालूम है कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में इसका कोई हल नहीं निकलेगा, क्योंकि अगर ब्रिटेन, फ्रांस, रूस और चीन के रूप में चारों सदस्य भी इसके खिलाफ हो जाएं तब भी अमेरिका अपने वीटो का प्रयोग करके मामले को पलट सकता है। बहरहाल सुरक्षा परिषद के भीतर सबसे अहम बदलाव यही देखने को मिला कि इजरायल और फलस्तीन के बीच लंबे समय से चले आ रहे इस विवाद पर यूरोपीय संघ के देशों ने अमेरिका का समवेत स्वर में विरोध किया।
राष्ट्रपति पुतिन के नेतृत्व में पश्चिम एशिया की राजनीति और सुरक्षा में मॉस्को भी एक बड़ी ताकत के रूप में उभरा है। रूसी नेता द्वारा 11 दिसंबर को सीरिया के औचक दौरे से यह साबित भी होता है। इस्लामिक स्टेट यानी आइएस की हार का एलान मॉस्को-दमिश्क सहयोग की एक बहुत बड़ी कामयाबी है और इसके क्षेत्रीय निहितार्थों को नकारा नहीं जा सकता। आइएस जैसे आतंकी संगठन के खिलाफ रूस की इस कामयाबी पर भारत और चीन, दोनों ने उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की है। पश्चिम एशिया खासतौर से अरब देशों में परंपरागत रूप से अमेरिका का ही दबदबा रहा है और जिस तरह रूस ने यहां खुद को स्थापित किया है उससे क्षेत्रीय मामलों में अमेरिका के एकाधिकार की कुछ न कुछ हवा जरूर निकलेगी। हालांकि तेल की कीमतों में गिरावट और मॉस्को की आर्थिक हालत कुछ पतली होने की वजह से जरूर इसमें कुछ खलल पड़ेगा। यही वजह है कि इसमें चीन के लिए गुंजाइश बन सकती है जो क्षेत्रीय सामरिक समीकरणों को प्रभावित करने वाले प्रमुख खिलाड़ी के तौर पर उभर सकता है। बीते दिनों नई दिल्ली में हुई रूस-भारत-चीन यानी आरआइसी देशों के विदेश मंत्रियों की बैठक से इसके कुछ संकेत भी मिले। इससे यही संदेश निकला कि मॉस्को-बीजिंग के बीच अगर बढ़िया तालमेल बन जाए तो वे क्षेत्रीय रणनीतिक और सुरक्षा मसलों को एक बड़ी हद तक प्रभावित कर सकते हैं। आतंकवाद की एक सुर में निंदा करते हुए आरआइसी मंत्रियों ने इस आशय से जुड़ा संयुक्त पक्ष भी रखा, लेकिन इसमें कोई हैरानी नहीं हुई कि अफगानिस्तान के मसले पर रूसी विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव ने अफगान शांति प्रक्रिया में तालिबान को भी शामिल करने की हिमायत की। लवरोव के सुझाव का सार कुछ ‘पड़ोसियों’ के रवैये से भी जुड़ा था जहां परोक्ष रूप से उनका इशारा पाकिस्तान और ईरान, दोनों की भूमिका से जुड़ा था। बहरहाल पाकिस्तान को लेकर भारत की आपत्तियों और ईरान को लेकर अमेरिका की तुनकमिजाजी भी जगजाहिर है।
असल में क्षेत्रीय मामलों में विदेशी कारकों के भू-राजनीतिक शक्ति प्रदर्शन का बदलता स्वरूप बेहद अहम पहलू बन गया है। यरुशलम इसकी हालिया मिसाल है जहां अमेरिकी घरेलू राजनीति इसके लिए उत्प्रेरक बिंदु बनी और उसने क्षेत्रीय स्तर पर खलबली मचा दी। साथ ही यह काम बहुत रचनात्मक एवं अनुकूल रूप से भी नहीं हुआ। इससे फलस्तीन मुद्दे का निष्पक्ष और स्थाई समाधान संभव नहीं।
[ लेखक सामरिक मामलों के जानकार हैं ]