डॉ. एके वर्मा

स्वतंत्रता की 70वीं वर्षगांठ से ठीक पहले देश को नए राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति मिले। आज तक किसी भी उपराष्ट्रपति ने अपने कार्यकाल की अंतिम वेला में कोई विवादित बयान नहीं दिया था, लेकिन पूर्व-उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी ने अपनी विदाई के क्षणों में ‘दलित, मुस्लिम और ईसाईयों में असुरक्षा’ के संबंध में जो विचार 7 अगस्त को नेशनल लॉ स्कूल ऑफ इंडिया यूनिवर्सिटी, बेंगलुरु और फिर 10 अगस्त को राज्यसभा टीवी पर करण थापर को दिए साक्षात्कार में व्यक्त किए उसने कई सवाल खड़े कर दिए। हामिद अंसारी के विचारों ने देश की जनता को कुछ मायूस किया, क्योंकि उन्होंने संवैधानिक पद पर रहते हुए राजनीतिक वक्तव्य दिया। डॉ. राधाकृष्णन के बाद वह पहले उपराष्ट्रपति थे जिन्हें लगातार दो कार्यकाल मिले और पूरे कार्यकाल के दौरान वे आमतौर पर अविवादित रहे। विदाई की वेला में उनसे देश की जनता को कुछ सकारात्मक दिशा-निर्देश मिलते तो अच्छा होता।
क्या वास्तव में देश में मुस्लिम तबका असुरक्षित महसूस करता है? क्या ऐसा इसलिए कि वह पार्टी सत्ता में आ गई है जिसे मुस्लिम सामान्यत: वोट नहीं देते थे? तो क्या जब कांग्रेस सत्ता में थी तो मुस्लिम सुरक्षित थे और अब अचानक असुरक्षा महसूस होने लगी है? कहीं ऐसा तो नहीं कि जो लोग आज मुस्लिम असुरक्षा का प्रश्न उठा रहे हैं वे सभी स्वयं देश में दक्षिणपंथ की विचारधारा और दक्षिणपंथी सरकार के प्रति असहिष्णु हैं? आखिर ऐसी कौन सी बात है जिससे मुस्लिम असुरक्षित हैं? जमीनी हकीकत इसके उलट है। मुस्लिम बस्तियों में शोध के दौरान मुस्लिम इस बात का मजाक बनाते हैं कि उन्हें कोई असुरक्षा का भाव है। समाज में उन्हें कुछ भी कहने और करने का पूरा हक ही नहीं, अवसर भी है। अलबत्ता चुनावी दांव-पेंच के चलते सभी पार्टियां मुसलमानों को रिझाने के लिए उनके साथ खड़ी होने का प्रदर्शन करती हैं और प्राय: वे कुछ शरारती तत्वों के उन कानून विरोधी कार्यों का भी समर्थन करने को बाध्य होती हैं जिसे स्वयं मुस्लिम समुदाय के लोग भी सही नहीं मानते। इससे राजनीतिक दलों की सेक्युलर राजनीति की आड़ लेकर अपराधी किस्म के कुछ लोग समूचे मुस्लिम समुदाय को बदनाम करते हैं और राजनीतिक पार्टियां उनके जाल में फंस जाती हैं।
हकीकत यही है कि हर शहर के कुछ खास इलाकों में मुस्लिमों का जनसंख्या घनत्व बेतहाशा बढ़ जाता है और फिर उस क्षेत्र में जाने में आम हिंदू भी खुद को असहज महसूस करने लगते हैं। इतना ही नहीं, मुस्लिम बाहुल्य मुहल्लों में असुरक्षा बोध से हिंदू परिवार धीरे-धीरे मकान बेच कर सुरक्षित मुहल्लों में जाने लगते हैं। ऐसे मुहल्लों में पुलिस और प्रशासन भी हाथ डालने से कतराते हैं, क्योंकि वहां अपराधी प्रवृत्ति के भी कुछ लोग गैरकानूनी गतिविधियों में लगे होते हैं और उन्हें विभिन्न दलों का राजनीतिक संरक्षण भी प्राप्त होता है। ऐसे माहौल से आजिज आकर अनेक मुस्लिम परिवार भी हिंदू बस्तियों में चले जाते हैं। यह प्रवृत्ति कुछ शहरों में चिंताजनक स्तर पर पहुंच गई है, लेकिन संकोच के चलते और सांप्रदायिक कहे जाने के डर से ज्यादातर लोग इसे कहने से बचते हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि कोई भी पार्टी इस प्रवृत्ति का संज्ञान नहीं लेना चाहती और ज्यादातर शहरों में हिंदू-मुस्लिम बस्तियों का ऐसा सपाट विभाजन रोकने और हिंदू-मुस्लिम रिश्तों में उससे उपजी दूरी को कम करने का कोई प्रयास नहीं करती।
असुरक्षा तो भारतीय समाज का अभिन्न तत्व हो गया है। समाज का हर व्यक्ति खुद को असुरक्षित महसूस करता है, चाहे वह हिंदू हो या मुसलमान या कोई और। हमारे नेता मुस्लिम असुरक्षा को तो सेक्युलर राजनीति के आईने में देख लेते हैं, लेकिन हिंदू असुरक्षा का क्या? उसे भी कोई आईना मिलेगा क्या? यह प्रश्न इसलिए भी गंभीर है, क्योंकि देश में सेक्युलर-कम्युनल विमर्श कुछ ऐसे परिभाषित हो गया है कि मुस्लिम हितों की बात करना और इस्लाम की दुहाई देना तो सेक्युलर है, लेकिन हिंदू हितों की बात करना और हिंदुत्व सांप्रदायिक मान लिए गए हैं। बावजूद इसके कि सर्वोच्च न्यायालय ने 1995 में अपने एक निर्णय में हिंदुत्व को धार्मिक पद्धति नहीं, वरन एक जीवन शैली माना।
बहुत अच्छा होता यदि विदाई की वेला में हामिद अंसारी केवल एक संप्रदाय में असुरक्षा भाव की बात न कर संपूर्ण समाज में व्याप्त असुरक्षा की बात करते। क्या वे आतंकवाद और नक्सलवाद से उपजी असुरक्षा की बात नहीं कर सकते थे? क्या वे भ्रष्टाचार और राजनीति के अपराधीकरण से उपजी असुरक्षा की ओर इंगित नहीं कर सकते थे? क्या वे मुस्लिम युवाओं के आइएसआइएस की ओर आकृष्ट होने से पूरे देश और स्वयं मुस्लिम समाज में उपजी असुरक्षा की बात नहीं कर सकते थे? क्या वे कुरान और हदीस के उद्धरण देकर मुस्लिमों को गैर-मुस्लिमों और गैर-इस्लामी धर्मों के प्रति आदर और संवेदनशील होने का संदेश नहीं दे सकते थे? उनके सामने 70 हजार हिंदुस्तानी मुल्ला-मौलवियों का दिसंबर, 2015 में जारी फतवा था जिसमें आत्मघाती-विस्फोटों और सभी प्रकार की आतंकवादी गतिविधियों को हराम माना गया था। अजमेर शरीफ के प्रधान मोहम्मद एहसान रजा खान ने कहा था, ‘कुरान में लिखा है कि एक बेकसूर इंसान को मारने का दोष संपूर्ण मानवता की हत्या के बराबर है।’ हामिद अंसारी से बेहतर और कौन हो सकता था इसकी याद ताजा कराने का? केवल मुस्लिम असुरक्षा की बात करने से ऐसा लगा जैसे वे इस मुद्दे को राजनीतिक विमर्श के केंद्र में लाना चाहते थे।
शायद हामिद अंसारी इस मुद्दे पर एक विशेष बौद्धिक दृष्टिकोण के शिकार हो गए। मुस्लिम समाज का एक वर्ग धीरे-धीरे इस दृष्टिकोण से दूरी बना रहा है। मुस्लिम महिलाएं तीन तलाक पर और शिया व सूफी मुस्लिमों का एक बड़ा वर्ग ‘मुस्लिम असुरक्षा’ के तिलिस्म से बाहर निकलकर खुली हवा में सांस लेना चाहता है। अनेक पढ़े-लिखे सुन्नी मुस्लिम भी ऐसा ही सोचते हैं, मगर अफसोस कि न तो मुस्लिम समाज का बौद्धिक नेतृत्व और न ही देश के प्रमुख राजनीतिक दल मुस्लिम समाज को सही राह दिखा पा रहे हैं। हमें नहीं भूलना चाहिए कि देश में हिंदू-मुस्लिम रिश्तों का एक ऐतिहासिक संदर्भ है और स्वतंत्रता के बाद से ही जिस तरह हिंदुओं ने मुस्लिम भाई-बहनों को आत्मसात किया वह अपने आप में सेक्युलरिज्म की एक मिसाल है, लेकिन हमारे नेताओं को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि सेक्युलरिज्म की जिम्मेदारी किसी एक वर्ग की नहीं, सबकी है और उसके लिए सबको प्रयास करना होगा। इसके लिए जरूरी है कि वोट के लालच में किसी एक खास संप्रदाय को हमेशा ‘पीड़ित और असुरक्षित’ के रूप में न पेश किया जाए, क्योंकि इससे उन लोगों का भी मनोविज्ञान गड़बड़ा जाता है जो ऐसा महसूस नहीं करते। हामिद अंसारी ने देश का प्यार और आदर हासिल किया है और उन जैसे लोगों से अपेक्षा है कि आगे वे एक या कुछ समुदायों के बजाय पूरे समाज की समस्याओं की ओर ध्यान खींचकर और उसके समाधान का रास्ता भी इंगित करेंगे।
[ लेखक सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ द सोसाइटी एंड पॉलिटिक्स के निदेशक एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं ]