जगमोहन सिंह राजपूत

राष्ट्र की सुरक्षा देशवासियों का सर्वोपरि उत्तरदायित्व माना जाता है। इस दायित्व का पूर्णरूपेण निर्वहन आज के युग में वही समाज कर सकता है जिसने अपनी शिक्षा व्यवस्था को राष्ट्र की सुरक्षा, प्रगति और विकास के लिए उपयुक्त, गतिशील एवं नवोन्मेषी बनाया हो। इसके साथ ही उसकी ठीक वैसे ही निगरानी लगातार की हो जैसी सीमा पर तैनात प्रहरी करता है। देश के हर नागरिक को शिक्षा की उपलब्धता और उसकी गुणवत्ता पर विश्वास होना भी आवश्यक है। भारत की शिक्षा व्यवस्था की साख अपेक्षित स्तर से बहुत नीचे हैं और इसमें लगातार कमी हो रही है। प्रतिवर्ष बोर्ड परीक्षा परिणाम आने के बाद अनेक चिंताजनक पक्ष उभरते हैं। उन पर चर्चा होती है, फिर वह सब पृष्ठभूमि में चला जाता है। इस वर्ष सीबीएसई द्वारा मई के महीने में मॉडरेशन समाप्त करने का फैसला और उच्च न्यायालय द्वारा उसका निरस्त किया जाना शिक्षा से जुड़े अधिकांश लोगों को भौंचक्का कर गया। शिक्षा ही परिवर्तन की निरंतरता के मध्य लगातार अपने कलेवर में आवश्यक फेरबदल कर राष्ट्र की प्रगति को दिशा प्रदान करती है। यही कारण है कि शिक्षा और उससे संबंधित व्यवस्था लगातार गतिशील बनी रहनी चाहिए। बदलाव की प्रक्रिया गहन विचार-विमर्श से ही निकालनी चाहिए और इसका आधार शोध, अध्ययन एवं सर्वेक्षण के परिणामों को ही बनना चाहिए। सीबीएसई का निर्णय न तो इस वर्ष के परीक्षार्थियों के हित में था, न ही उसके पीछे शैक्षिक दृष्टि से सुविचारित आधार था।
सीबीएसईको इस वर्ष मॉडरेशन के साथ ही परिणाम निकालने पड़े, मगर पंजाब बोर्ड ने बिना मॉडरेशन के परिणाम घोषित कर दिए। एक सजग व्यवस्था में ऐसी स्थितियों से सदा ही बचा जा सकता है, लेकिन तभी जब शिक्षा व्यवस्था के विभिन्न संस्थानों में जीवंत कार्यकारी समन्वय स्थापित किया जा सके। सीबीएसई और अन्य बोर्ड के प्रतिनिधि यदि मॉडरेशन समाप्त करने का निर्णय लेते हैं तो उनके पास इस परिवर्तन का शैक्षिक आधार होना चाहिए। यह तभी संभव है जब मूल्यांकन की वर्तमान पद्धति का संपूर्ण शोध आधारित विश्लेषण किसी विशेषज्ञ समूह द्वारा प्रस्तुत किया जाए और वर्तमान से बेहतर प्रक्रिया अपनाने का निर्णय लिया जाए। ऐसी क्या जल्दी थी कि मॉडरेशन समाप्त करने का निर्णय 2016-17 से ही लागू किया जाए? ऐसे निर्णय सत्र के प्रारंभ में लिए जाएं ताकि बच्चे, अध्यापक, माता-पिता प्रारंभ से ही उनसे परिचित हो जाएं। सीबीएसई के निर्णय को निरस्त करते हुए उच्च न्यायालय ने इसी तर्क को स्वीकार किया। मानव संसाधन मंत्रालय ने इस स्थिति को समझा और संभवत: वहीं से प्राप्त संकेतों के कारण सीबीएसई सर्वोच्च न्यायालय नहीं गया और हास्यास्पद स्थिति से बच गया।
सीबीएसई का मुख्य कार्य देश में माध्यमिक स्तर पर पठन-पाठन और स्कूल प्रबंधन की गुणवत्ता एवं सम-सामयिक उपयोगिता बढाने का है। राष्ट्रीय स्तर पर स्कूलों और कक्षाओं में अध्ययन-अध्यापन तथा परीक्षा की बारीकियों को समझाने के लिए सीबीएसई से अधिक सक्षम संस्था कोई नहीं है। देशभर में और विदेशों में भी उससे संबद्ध 11,000 से अधिक स्कूल हैं। नए पाठ्यक्रम के निर्माण से लेकर बस्ते का बोझ और शिक्षण पद्धतियों पर इन स्कूलों के अध्यापकों, बच्चों, प्राचार्यों और पालकों से जो सुझाव आ सकते हैं वे शैक्षिक परिवर्तन में अद्भुत योगदान कर सकते हैं। सीबीएसई को इस प्रकार के अध्ययन, सर्वेक्षण और शोध पर ध्यान देना चाहिए न कि राष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न संस्थानों के लिए प्रवेश परीक्षाएं आयोजित करने में अपनी ऊर्जा लगाना चाहिए। इसका मतलब नहीं कि वह इंजीनियरिंग, मेडिकल की प्रवेश परीक्षाएं आयोजित करे। कितने आश्चर्य की बात है कि विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, जो सारे विश्वविद्यालयों से जुड़ा है,नेट परीक्षा सीबीएसई से आयोजित कराता है। इससे सीबीएसई अपने मुख्य उदेश्य से भटक जाए तो कोई आश्चर्य क्यों करे? पिछले कुछ वर्षों से सीबीएसई ने कुछ पाठ्यपुस्तकें तैयार करने और उनके प्रकाशन का कार्य भी अपने हाथ में लिया है। इस कार्य के लिए भारत सरकार ने लगभग छह दशक पहले एनसीईआरटी की स्थापना की थी। स्कूल शिक्षा के पाठ्यक्रम की रूपरेखा बनाना और तदनुसार पाठ्य पुस्तकों का निर्माण एवं प्रकाशन इस संस्था का उत्तरदायित्व है। सीबीएसई को इसमें अपनी ऊर्जा लगाने का कोई अर्थ ही नहीं है। संभवत: इन दोनों संस्थाओं के बीच समन्वय की भारी कमी है, जिसकी ओर मानव संसाधन विकास मंत्रालय को प्राथमिकता के आधार पर ध्यान देना होगा। मूल्यांकन के हर पक्ष पर शोध और अध्ययन करने की जिम्मेदारी एनसीईआरटी की है और इस दिशा में उसने सराहनीय कार्य किया है। देशभर में प्रश्नपत्र बनाने वालों, उत्तर-पुस्तिकाओं का मूल्यांकन करने वालों, पाठ्य पुस्तकें लिखने वालों का प्रशिक्षण एनसीईआरटी प्रारंभ से ही करती आ रही है। यदि परीक्षक सही ढंग से प्रशिक्षित होकर ही उत्तर-पुस्तिकाओं को जांचें तो मॉडरेशन की आवश्यकता काफी हद तक कम हो जाएगी। स्कूल अध्यापकों के प्रशिक्षण के लिए एनसीईआरटी की विशेषज्ञता जग-जाहिर है मगर कपिल सिब्बल के मंत्री रहते हुए सीबीएसई ने यह कार्य भी एक प्राइवेट एजेंसी को सौंप दिया। इस प्रकार के निर्णय सारी व्यवस्था को कमजोर कर देते हैं।
सीबीएसई को पचास से अधिक स्कूल बोर्ड के समक्ष अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत करने का उत्तरदायित्व निभाना है। इस समय बोर्ड परीक्षाओं के अंक जिस ऊंचाई तक पहुंच गए हैं उससे अंकों की साख कम हुई है। 89-90 प्रतिशत अंक प्राप्त करने वाले बच्चों के माता-पिता को लगता है कि उनके सपने चूरचूर हो गए। बच्चों का आत्म-विश्वास घटा है। नकल, कोचिंग संस्थान, ट्यूशन, नकल-माफिया आदि शिक्षा व्यवस्था को जर्जर करनें में लगे हैं। सीबीएसई को अंकों को सामान्य स्तर तक लाने में गहन विचार-विमर्श करना होगा। अंकों की यह अनावश्यक दौड़ समाप्त करनी ही होगी। इस वर्ष सिविल सर्विस परीक्षा में अधिकतम प्राप्तांक केवल 55.3 प्रतिशत हैं, जबकि दिल्ली विश्वविद्यालय के कुछ कालेज न्यूनतम अंक-स्तर सौ में सौ रख रहे हैं। एनसीईआरटी और सीबीएसई के सामने एक कठिन चुनौती है। देश इन दोनों पर विश्वास करता है और अपेक्षा करता है कि उनकेसारे निर्णय ठोस शैक्षिक विधाओं पर आधारित और साथ ही अनुभव-जन्य होंगे।
[ लेखक एनसीईआरटी के पूर्व निदेशक हैं ]