केसी त्यागी

बीते सप्ताह देश की राजधानी दिल्ली में एक सीवर टैंक में चार सफाई कर्मियों की दम घुटने से हुई मौत हो गई। यह इस तरह की पहली घटना नहीं है जब सीवर टैंकों की सफाई करते मजदूरों की जहरीली गैस के कारण मौत हुई हो। एक रिपोर्ट के अनुसार पिछले सौ दिनों में 39 सफाई मजदूरों की सीवर साफ करते वक्त मौत हुई है। इस तरह की घटनाएं किसी राज्य विशेष तक सीमित नहीं हैं, बल्कि लगभग प्रत्येक राज्यों से ऐसी खबरें आती रहती हैं। बीते शनिवार को मद्रास उच्च न्यायालय द्वारा केंद्र और तमिलनाडु सरकार को निर्देश दिया गया कि सिर पर मैला ढोने की चल रही प्रथा पर कड़ी नजर रखी जाए। चेन्नई के सफाई कर्मचारियों की ओेर से दायर एक याचिका की सुनवाई के दौरान मुख्य न्यायाधीश की बेंच ने कहा कि मैला ढोने को निषेध करने वाले अधिनियम का खंड 7 सीवर टैंकों की सफाई जैसे खतरनाक कार्य की अनुमति नहीं देता। तमाम नियम और कड़े कानूनों के बावजूद यह प्रथा दिल्ली में भी चल रही है तो यह केंद्र और राज्य सरकार की विफलता का स्पष्ट उदाहरण है। सरकारें इस विषय पर गंभीर नहीं रही हैं और यही कारण है कि इस कुरीति पर अब तक अंकुश नहीं लग पाया है। हैरत है कि जिस पेशे पर संवैधानिक पाबंदी के साथ-साथ कठोर सजा और जुर्माने का प्रावधान है वह कागजों तक सिमटा है? ऐसे काम कराए जाने की व्यवस्था पर पाबंदी या रोक-टोक तो दूर, मजदूरों को जरूरी औजार तक मुहैया नहीं हो पाते। दिल्ली की घटना में भी यही हुआ। बिना किसी औजार और बचाव उपकरण के सीवर साफ करने गए मजदूर एक के बाद एकदम तोड़ते गए। यह अफसोस की बात है कि सबका साथ, सबका विकास के दावे के बीच समाज के एक हिस्से के लोगों को इस तरह की मौत का सामना करना पड़ रहा है।
एक तरफ केंद्र सरकार स्वच्छ भारत अभियान जैसे आकर्षक कार्यक्रम के जरिये स्वच्छता का प्रचार कर रही है और दूसरी ओर मैला ढोने जैसी प्रथा से समाज को कलंकित होने दे रही है। आर्थिक-सामाजिक और जातिगत जनगणना की रिपोर्ट में यह तथ्य सामने आ चुका है कि आठ लाख भारतीय आज भी सिर पर मैला ढोकर गुजर-बसर करने को मजबूर हैं। 6 सितंबर 1993 को मैला ढोने और शुष्क शौचालयों के निर्माण पर रोक लगाने के उद्देश्य से एक कानून बनाया गया था। इसके लागू होने के बावजूद वर्ग विशेष के जीवन स्तर में कोई बदलाव नहीं हो पाया और लाखों की संख्या में दलित और खासकर वाल्मिकी समाज के लोग ऐसे कामों में लगे हुए हैं। इस तरह के पेशे से न सिर्फ उनकी व्यक्तिगत प्रतिष्ठा का हनन होता है, बल्कि उनकी सामाजिक, आर्थिक और शारीरिक संरचना भी प्रभावित होती है। एक तरफ उनकी पहचान गंदगी साफ करने वाले व्यक्ति की बन जाती है तो दूसरी तरफ सामाजिक भेदभाव के कारण उन्हें काम करने के लिए कोई दूसरा विकल्प नहीं मिल पाता। केंद्र सरकार की ओर से 2013 में मैला ढोने जैसे पेशे और शुष्क शौचालयों के निर्माण पर रोक के साथ ही ऐसे कार्यों से जुड़े लोगों के पुनर्वास का भी प्रावधान किया गया था। संबंधित कानून शुष्क शौचालयों पर प्रतिबंध, हाथ से मैला उठाने पर रोक के साथ सीवर की खतरनाक सफाई पर प्रतिबंध सुनिश्चित करता है। कानून का पालन नहीं होने की स्थिति में एक वर्ष तक की कैद और 50,000 रुपये के जुर्माने का प्रावधान है। इन तमाम प्रावधानों के बावजूद मैला ढोने और सीवरों की खतरनाक सफाई खुलेआम चलती आ रही है। जहां पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने इसे जातीय रंगभेद बताया था वहीं वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र्र मोदी भी इसे कलंक बता चुके हैं।
2014 के सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले के तहत सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को 2013 का कानून पूरी तरह लागू करने, सीवर-टैंकों की सफाई के दौरान हो रही मौतों पर काबू पाने, मरने वालों के आश्रितों को 10 लाख रुपये का मुआवजा देने का आदेश दिया गया था। अफसोस है कि यह फैसला भी कारगर नहीं रहा। स्वच्छ भारत अभियान की शुरुआत से ऐसी आस जगी थी कि मैला ढोने के व्यवसाय में लिप्त लोगों को कुछ राहत मिलेगी, पर सरकार का अभियान सिर्फ शौचालय निर्माण तक सीमित रह गया। इस अभियान में मैला ढोने से मुक्ति पर कोई विशेष बल नहीं दिया गया। इस अभियान के तहत बनाए गए 1.1 करोड़ शौचालय भूमिगत ड्रेनेज सिस्टम से नहीं जुड़े हैं, क्योंकि देश के शहरी और उप-शहरी क्षेत्रों में ऐसे सिस्टम हैं ही नहीं। क्या सरकार इस तथ्य से अनभिज्ञ है कि शौचालयों के टैंकों की सफाई हेतु कोई मशीनी प्रक्रिया अब तक प्रचलन में नहीं है और इसी कारण टैंकों की सफाई हाथों से की जाती है? यह गैरकानूनी है। 2011 के एक अन्य आंकड़े के अनुसार देश में शुष्क शौचालयों की संख्या लगभग 26 लाख थी। इनमें लगभग 14 लाख शौचालयों की गंदगी खुले में प्रवाहित होती थी। देश बदल रहा है, आगे बढ़ रहा है..जैसे नारे के बीच बदहाली की यह तस्वीर शर्मसार करने वाली है। महिला सशक्तिकरण की ओर बढ़ रहे भारत के लिए इससे शर्मनाक और कुछ नहीं हो सकता कि सिर पर मैला ढोने वालों का लगभग 98 फीसदी हिस्सा महिलाओं का है। भारतीय रेल और नगर निगम इस तरह के काम को प्रोत्साहन देते आ रहे हैं। पिछले दस सालों के दौरान केवल मुंबई नगर निगम में 2,721 सफाई कर्मियों की मौत हो चुकी है। यह संख्या उन कर्मियों की है जिनकी मौत निगम के सीवर साफ करने के दौरान हुई है। एक रिपोर्ट कहती है कि अधिकांश सफाईकर्मी 60 की आयु नहीं पार कर पाते। टीबी, हृदय रोग, कैंसर और गुर्दे की बीमारी इनकी मौत का कारण बनती है। वक्त आ गया है कि सरकार इस सामाजिक कलंक को मिटाने के लिए कोई ठोस योजना बनाए। इस दिशा में किए गए अब तक के प्रयास नाकाफी हैं। अभी हाल में साबरमती आश्रम का सौवां स्थापना दिवस मनाया गया। इस दौरान गांधीजी को जरूर याद किया गया, लेकिन छुआछूत और एक विशेष वर्ग द्वारा हाथों से मल सफाई किए जाने की व्यवस्था को जड़ से खत्म करने पर प्रतिबद्धता गायब रही। इसी तरह पिछले वर्ष अंबेडकर की 125 वीं जयंती धूमधाम से मनाई गई, लेकिन उनके आदर्शों और उद्देश्यों पर गहन चिंता व्यक्त नहीं की गई।
[ लेखक जदयू के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं ]