बीते हफ्ते सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ऐसा कोई कानून नहीं है जो सरकार को तय वक्त से पहले बजट पेश करने से रोक सके। उसे ऐसा इसलिए कहना पड़ा, क्योंकि एक फरवरी को प्रस्तावित आम बजट के खिलाफ एक जनहित याचिका दाखिल की गई थी। एक फरवरी को बजट पेश करने की तैयारी पर विपक्षी दलों की आपत्ति पर चुनाव आयोग का फैसला जो भी हो, यह समझना कठिन है कि एक-दो-चार या फिर 27-28 फरवरी को बजट पेश किया जाना जनहित याचिका का मसला कैसे हो सकता है? इससे भी बड़ा सवाल यह है कि इस कथित जनहित याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने अपना समय क्यों बर्बाद किया? इसके पहले सुप्रीम कोर्ट ने इस आशय की भी जनहित याचिका सुनी थी कि रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर को ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ का श्रेय लेने से रोका जाए। यह एक बेतुकी याचिका थी और जाहिर है कि उसे खारिज कर दिया गया, लेकिन यह प्रश्न अनुत्तरित ही रहा कि आखिर यह जनहित का मामला कैसे था? इन कथित जनहित याचिकाओं को दाखिल करने वाले वकील वही मनोहर लाल शर्मा हैं जो निर्भया कांड के अभियुक्तों का मुकदमा लड़ रहे हैं। वह इन अभियुक्तों के बचाव में यह दलील भी दे चुके हैं कि इस कांड के पीछे निर्भया के मित्र और एक बड़े नेता का हाथ था। नि:संदेह वकील किसी का भी केस लड़ सकते हैं, लेकिन किसी को पता नहीं कि मनोहर लाल शर्मा ताबड़तोड़ जनहित याचिकाएं किस हैसियत से दाखिल करते हैं? इसी महीने अब तक उनकी तीन-चार जनहित याचिकाएं सुनी जा चुकी हैं। मुश्किल यह है कि वह ऐसे इकलौते वकील नहीं जो धड़ाधड़ जनहित याचिकाएं दाखिल करते हैं। ऐसे ही वकीलों में एक बड़ा नाम प्रशांत भूषण का है।
पिछले दिनों प्रशांत भूषण सहारा-बिड़ला डायरी केस को लेकर चर्चा मेंं थे। यह याचिका खारिज होने के बाद से वह सुप्रीम कोर्ट के प्रति अपनी निराशा प्रकट कर रहे हैं तो उनके समर्थक यह जानते हुए भी जैन हवाला कांड का उल्लेख कर रहे हैं कि इस कथित संदिग्ध मामले की जांच से कुछ हासिल नहीं हुआ था। प्रशांत भूषण ने सहारा-बिड़ला डायरी वाली याचिका कॉमन कॉज नामक संगठन की ओर से दाखिल की थी। इस संगठन का गठन एचडी शौरी ने किया था। उन्होंने अपनी याचिकाओं के जरिये जनहित का बड़ा काम किया। यह एक तथ्य है कि तमाम बड़े और ऐतिहासिक महत्व के फैसले जनहित याचिकाओं की ही देन हैं। जनहित याचिकाओं ने न्यायपालिका और विशेष रूप से सुप्रीम कोर्ट के प्रति आम लोगों के भरोसे को बढ़ाया है, लेकिन पिछले कुछ समय से फालतू की जनहित याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट का कीमती वक्त बर्बाद करने का काम कर रही हैं। कुछ ऐसे संगठन हैं जो जनहित याचिकाओं की दुकानों में तब्दील हो चुके हैं। प्रशांत भूषण के पास कॉमन कॉज के अलावा एक अन्य संगठन ‘सेंटर फॉर पब्लिक इंटरेस्ट लिटिगेशन’ भी है। दरअसल इसी कारण सुप्रीम कोर्ट आए दिन उनकी किसी न किसी जनहित याचिका की सुनवाई करता दिखता है। इससे कोई असहमत नहीं हो सकता है कि जनहित याचिकाएं कई ऐतिहासिक फैसलों का आधार बनी हैं, लेकिन इसका कोई औचित्य नहीं कि देश की सबसे बड़ी अदालत फालतू की जनहित याचिकाओं को सुनने में अपना समय जाया करे। कभी-कभी ऐसा लगता है कि कुछ लोग सिर्फ इसलिए अखबार पढ़ते हैं ताकि नित-नई जनहित याचिका दाखिल करने का मसला-मसाला जुटा सकें।
पिछले हफ्ते खराब खाने की शिकायत का एक वीडियो जैसे ही सामने आया वैसे ही सीमा सुरक्षा बल के साथ गृह मंत्रालय भी सक्रिय हुआ, लेकिन दो-तीन के अंदर एक जनहित याचिका दिल्ली हाईकोर्ट पहुंच गई। नोटबंदी का ऐलान होने के साथ भी उच्च न्यायालयों में जनहित याचिकाओं का ढेर लग गया था। ऐसी याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट तक भी पहुंचीं। जब सरकार की ओर से यह अनुरोध किया गया कि उच्च न्यायालयों में नोटबंदी के खिलाफ दाखिल हो रही याचिकाओं की सुनवाई एक साथ शीर्ष अदालत में ही हो तो कहा गया कि ऐसा नहीं हो सकता, आप सब जगह अपना पक्ष रखिए। एक ओर जजों की कमी और दूसरी ओर एक ही मसले को विभिन्न उच्च न्यायालयों में सुनने की छूट। क्या यह समय और श्रम की बर्बादी नहीं?सुप्रीम कोर्ट के समक्ष न जाने कितने गंभीर मसले लंबित हैं, लेकिन एक जनहित याचिका के चलते वह यह तय करने की भी कोशिश कर रहा है कि संता-बंता के चुटकुले कैसे होने चाहिए? सर्जिकल स्ट्राइक पर जनहित याचिका से आप अवगत ही हैं। इससे भी अवगत हों लें कि राहुल गांधी की नागरिकता तय करने, कोहिनूर हीरे को भारत लाने और सिंधु जल समझौते को खत्म करने को लेकर भी जनहित याचिकाएं दाखिल हो चुकी हैं। ऐसी याचिकाएं तब दाखिल हो रही हैं जब सुप्रीम कोर्ट फालतू और निहित स्वार्थों वाली जनहित याचिकाओं को हतोत्साहित करने के लिए दस सूत्रीय दिशा-निर्देश तय कर चुका है। इन दिशा निर्देशों के बावजूद उच्चतर अदालतों में फालतू की जनहित याचिकाएं दायर हो रही हैं।
जैसे सूचना अधिकार कानून के बाद कुछ लोगों ने फालतू की आरटीआई अर्जी दाखिल करने का धंधा बना लिया है वैसे ही कुछ लोग जनहित याचिकाओं का कारोबार चलाते दिख रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट के लिए यह आवश्यक है कि वह जनहित याचिकाओं के कारोबार को रोके और उन लोगों को हतोत्साहित करे जो थोक के भाव जनहित याचिकाएं दाखिल करते हैं। इसमें दो राय नहीं कि सुप्रीम कोर्ट किसी भी मसले पर सुनवाई कर सकता है और किसी भी प्रकरण का संज्ञान ले सकता है, लेकिन वह देश की हर समस्या को नहीं सुलझा सकता। चूंकि सुप्रीम कोर्ट करीब-करीब हर मसले पर जनहित याचिकाएं सुनने की कोशिश करता है इसलिए जनता को यह संदेश जाता है कि वह हर समस्या को सुलझा सकने में समर्थ है, लेकिन यह संभव नहीं। हर संस्था की तरह उसकी भी सीमाएं हैं। सुप्रीम कोर्ट ने गंगा में प्रदूषण का संज्ञान लिया, लेकिन गंगा जस की तस है। उसने पुलिस सुधार का काम हाथ में लिया, लेकिन पुलिस अब भी वैसी ही है। बेहिसाब जनहित याचिकाएं सरकार के लिए भी एक सबक हैं। उसे यह समझना होगा कि सक्षम नियामक संस्थाओं का अभाव लोगों को बात-बात पर अदालतों का दरवाजा खटखटाने को विवश करता है। जब शासन-प्रशासन के स्तर पर किसी मसले की अनदेखी होती है तो पीड़ित-प्रभावित लोगों को अदालत का रास्ता ही एक मात्र रास्ता नजर आता है।
[ लेखक राजीव सचान, दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं ]