चीन द्वारा भारत की सुरक्षा चिंताओं को गंभीरता से लेने से इंकार करने और नई दिल्ली द्वारा चीनी चुनौतियों का सामना करने के फैसले के साथ ही एशिया की दो उभरती ताकतों के रिश्तों में तल्खी आने लगी है। भारत-चीन के संबंधों आई खटास की कई वजहें हैं। एक तरफ भारत पाकिस्तान स्थित जैश-ए-मोहम्मद के सरगना मसूद अजहर को संयुक्त राष्ट्र द्वारा आतंकवादी घोषित कराने के लिए मुहिम चला रहा है तो दूसरी तरफ चीन इसमें किसी न किसी तरह से बाधा पैदा कर रहा है। गत दिसंबर में भी उसने भारत के प्रयासों पर एक बार फिर पानी फेर दिया। दिलचस्प है कि चीन को छोड़कर संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद की समिति में शामिल 15 देश भारत के साथ हैं, सिर्फ चीन ही एक ऐसा देश है जो मार्च 2016 से अजहर को आतंकवादी घोषित कराने की कोशिश को विफल करता आ रहा है। गत दिनों भारत द्वारा लंबी दूरी की बैलेस्टिक मिसाइलों अग्नि-4 और अग्नि-5 के परीक्षण पर प्रतिक्रिया देते हुए चीन ने पाकिस्तान के मिसाइल कार्यक्रमों को मदद देने का संकेत दिया था। चीन के सरकारी मीडिया ग्लोबल टाइम्स ने अपने एक संपादकीय में लिखा कि यदि पश्चिमी देश भारत को एक परमाणु ताकत के रूप में स्वीकारते हैं और भारत तथा पाकिस्तान के बीच बढ़ती परमाणु होड़ के प्रति उदासीन रहते हैं तो चीन चुप नहीं बैठेगा। वह जरूरत पड़ने पर सभी परमाणु नियमों का कड़ाई से प्रयोग करेगा।
चीन के 46 अरब डॉलर के निवेश से बन रहा चीन-पाकिस्तान आर्थिक कॉरिडोर (सीपीईसी) भी भारत को परेशान कर रहा है, क्योंकि यह विवादित कश्मीर की भूमि से होकर गुजर रहा है, जिस पर भारत अपना दावा करता है। भारत सीपीईसी को चीन के घातक प्रयास के रूप में देखता है और भारत की संप्रभुता और क्षेत्रीयता का उल्लंघन मानता है। हालांकि चीनी मीडिया ने सुझाव दिया है कि भारत को अपने निर्यात बढ़ाने और चीन के साथ बढ़ते व्यापार घाटे को संतुलित करने के लिए सीपीईसी से जुड़ना चाहिए। उसका कहना है कि पाकिस्तान की सीमा से लगते भारत के उत्तरी राज्यों और जम्मू-कश्मीर की अर्थव्यवस्था को इससे लाभ होगा। नई दिल्ली चीन के इस रुख से चकित है। उसे आशंका है कि कहीं कश्मीर पर पाकिस्तान के दावे को स्वीकार कर चीन अपनी नीति में बदलाव तो नहीं कर रहा है।
बहरहाल दुराग्रही चीन का सामना करने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुआई में केंद्र सरकार इन दिनों अपनी चीन नीति को नया रूप देने में व्यस्त नजर आ रही है। मई 2014 में सत्ता में आने के बाद मोदी ने चीन की तरफ गर्मजोशी से हाथ बढ़ाया था, लेकिन उसका कोई सार्थक नतीजा सामने नहीं आया। उसके बाद उन्होंने चीन को उसी की भाषा में जवाब देने का फैसला किया है। इसके लिए नई दिल्ली ने समान सोच वाले देशों जैसे अमेरिका, जापान, ऑस्टे्रलिया और वियतनाम से संबंधों को प्रगाढ़ किया है। इसने चीन के साथ लगती समस्याग्रस्त सीमाओं पर अपनी सामरिक क्षमताओं में इजाफा किया है और भारतीय सेना भी किसी भी संभावित युद्ध के लिए स्वयं को तैयार कर रही है। इससे भी दिलचस्प बात यह है कि मोदी सरकार भारत की तिब्बत नीति में आमूलचूल परिवर्तन लाने के संकेत दे रही है। वह भारत-चीन द्विपक्षीय संबंधों में तिब्बत मुद्दे को लाने का निर्णय कर रही है। 1959 से ही भारत में निर्वासित जीवन बिता रहे तिब्बती धर्मगुरु दलाई लामा का भारत मार्च में बिहार के राजगीर में बौद्ध धर्म पर होने वाले एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में खुलकर स्वागत करने की तैयारी कर रहा है। इसके अलावा आने वाले दिनों में चीन के विरोधों को दरकिनार करते हुए दलाई लामा भारत के अरुणाचल प्रदेश का दौरा करेंगे, जिस पर चीन अपना दावा जताता है। हालांकि शुरुआत में भारत तिब्बत पर चीन की भावनाओं का आदर करता रहा और दलाई लामा से भी आधिकारिक रूप से मेलजोल बढ़ाने से परहेज करता रहा, लेकिन अब स्थिति बदल रही है। भारत की प्रतिक्रियाओं में दलाई लामा की सार्वजनिक भूमिका अब खास तौर पर नजर आ रही है। हाल ही में राष्ट्रपति भवन में एक सम्मेलन के दौरान दशकों बाद दलाई लामा भारत के किसी राष्ट्रपति के साथ देखे गए। चीन भारत के इस कदम से असहज नजर आया और दलाई लामा की आवभगत पर कड़ी आपत्ति दर्ज कराई। चीन दलाई लामा को अंतराष्ट्रीय स्तर पर अलग-थलग देखना चाहता है और अपेक्षाकृत कमजोर देशों को डराकर वह ऐसा करने में सफल भी रहा है। मंगोलिया का उदाहरण हमारे सामने है, जिसे गत दिनों चीन की धमकी से डरकर माफी मांगनी पड़ी, क्योंकि उसने नवंबर 2016 में दलाई लामा का अपने यहां स्वागत किया था।
लेकिन भारत मंगोलिया नहीं है। चीन के रूखे व्यवहार से नई दिल्ली का उससे मोहभंग हो रहा है, क्योंकि तिब्बती लोगों के हितों को नजरअंदाज करते हुए चीन को खुश करना भारत के लिए तनिक भी लाभकारी साबित नहीं हुआ है और न ही बीते कुछ दशकों से हिमालय में शांति नजर आ रही है। इसके विपरीत चीन की आक्रामकता में बढ़ोतरी आई है। भारतीय नीति निर्माता अब और ज्यादा चीन का अनुसरण करना नहीं चाहते हैं। यही वजह है कि भारत चीन को सबक सिखाने और नियंत्रण में रखने के लिए तिब्बती लोगों के वैधानिक अधिकारों का समर्थन करता दिख रहा है।
भारत और चीन के बीच इस भू-राजनीतिक टकराव की एक वजह ग्लोबल और क्षेत्रीय समीकरणों में आए हालिया बदलाव भी हैं। दरअसल रूस के रूप में चीन को नया सहयोगी मिलने से भी भारत की असहजता बढ़ी है। हालांकि सबसे बड़ी बात है कि रूस भी चीन में दिलचस्पी ले रहा है। वह पश्चिमी देशों को रोकने के लिए चीन का जूनियर पार्टनर तक बनने को तैयार है। इस नए समीकरण से ऐतिहासिक रूप से मजबूत रहे भारत-रूस संबंधों में कड़वाहट आई है। यहां तक कि पश्चिमी देशों के खिलाफ चीन का समर्थन हासिल करने के लिए रूस भारत से दूरी बना रहा है। इसके साथ ही अमेरिका के साथ भारत की बढ़ती निकटता से चिंतित रूस पाकिस्तान को पुचकार रहा है। इसके लिए उसने सितंबर 2016 में पाकिस्तान के साथ पहली बार साझा सैन्य अभ्यास किया और दिसंबर में क्षेत्रीय मुद्दों पर पहली बार द्विपक्षीय वार्ता किया। वह इस साल पाकिस्तानी सेना को रूस निर्मित एमआइ-35 एम हमलावर हेलीकॉप्टर देने जा रहा है। इस बात की भी संभावना है कि आने दिनों में चीन समर्थित सीपीईसी का रूस समर्थित यूरेशियन आर्थिक फोरम में विलय हो जाए। वहीं रूस ने अफगानिस्तान में आइएस के बढ़ते खतरे की पृष्ठभूमि में तालिबान से वार्ता करने के लिए तैयार होने का संकेत दिया है। रूस चीन और पाकिस्तान से मिलकर भारत को एशिया में हाशिये पर करने के लिए भी काम कर रहा है।
अब जब वाशिंगटन में ट्रंप प्रशासन ने सत्ता संभाल ली है तब चीन-भारत के बढ़ते तनाव और चीन-रूस की मित्रता से पैदा हुई परिस्थितियां और जटिल हो सकती हैं। ट्रंप का रूस के प्रति दोस्ताना और चीन के प्रति विरोधी रुख आने वाले दिनों में एशिया में भूराजनीतिक समीकरणों को और उलझाएगा। जाहिर है, आने वाला समय काफी दिलचस्प रहने की संभावना है।
[ लेखक हर्ष वी. पंत, लंदन स्थित किंग्स कॉलेज में इंटरनेशनल रिलेशन के प्रोफेसर हैं ]