प्रदीप सिंह

अयोध्या ढांचे के ध्वंस का जिन्न एक बार फिर बोतल से बाहर आ गया है। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले के आपराधिक षड्यंत्र के आरोप से लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती, विनय कटियार और अन्य दूसरे भाजपा नेताओं को तकनीकी आधार पर बरी किए जाने को कानून सम्मत नहीं मानने का संकेत दिया है। हालांकि अदालत का अंतिम फैसला नहीं आया है, लेकिन न्यायाधीशों के सवालों से लगता है कि इन नेताओं पर आपराधिक षड्यंत्र का भी केस चलेगा। आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी इस समय पार्टी के उस मार्गदर्शक मंडल के सदस्य हैं जिससे कोई सलाह नहीं लेता। दोनों राष्ट्रपति और उप राष्ट्रपति पद चुनाव की ओर उम्मीद भरी नजरों से देख रहे थे, लेकिन सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी से लगता है कि उनके लिए यह रास्ता भी बंद हो जाएगा। पार्टी इन पदों के लिए उन्हें उम्मीदवार बनाती या नहीं, यह प्रश्न अब प्रासंगिक नहीं रह गया है। सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी संबंधित नेताओं के लिए आफत बनकर आई है तो पार्टी के शीर्ष नेतृत्व के लिए राहत और मुश्किल दोनों। भाजपा इस मुद्दे को छोड़कर प्रधानमंत्री की विकास की राजनीति की ओर बढ़ना चाहती है, लेकिन लगता है कि अयोध्या ढांचे के ध्वंस का मुद्दा उसे छोड़ने के लिए तैयार नहीं है। यह राहत की बात हो सकती है कि इन दोनों संवैधानिक पदों के लिए पार्टी नेतृत्व अपने बुजुर्ग नेताओं के नाम पर विचार न करने के आरोप से बच जाएगा, पर पार्टी के इन नेताओं पर बाबरी ध्वंस के आपराधिक साजिश में शामिल होने का आरोप पार्टी की छवि के लिए नुकसानदेह हो सकता है। यह शायद महज इत्तेफाक ही है कि भाजपा के मौजूदा नेतृत्व मंडल में ऐसे लोग नहीं बचे हैं जिनका छह दिसंबर 1992 से कोई सीधा और सक्रिय संबंध हो। उमा भारती और विनय कटियार इसके अपवाद हैं। यह मुद्दा लोगों की स्मृति से धीरे-धीरे गायब हो रहा है।
अयोध्या ढांचे के ध्वंस के पीछे साजिश के मामले में सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी उत्तर प्रदेश के चुनाव के बीच आई। इसके बावजूद किसी दल ने इसे प्रतिक्रिया देने लायक भी नहीं समझा। रामजन्म भूमि आंदोलन 1974 के जेपी आंदोलन के बाद सबसे बड़ा जनआंदोलन था। छह दिसंबर 1992 को जो हुआ उसके बाद भाजपा की चार राज्य सरकारें (उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान और दिल्ली) बर्खास्त हो गईं। इस आंदोलन ने आडवाणी को भाजपा के बुद्धिजीवी नेता से लोकप्रिय नेता बना दिया और अटल बिहारी वाजपेयी को हाशिये पर धकेल दिया। इसी तरह मुलायम सिंह यादव को मुसलमानों का नेता बना दिया तो अशोक सिंघल, आडवाणी और कल्याण सिंह को हिंदू हृदय सम्राट। सुप्रीम कोर्ट की ताजा टिप्पणी ने लालकृष्ण आडवाणी की राष्ट्रपति भवन पहुंचने उम्मीद पर पानी फेर दिया है। इससे पहले अदालत की एक और कार्रवाई ने उनके प्रधानमंत्री बनने की संभावना के दरवाजे बंद कर दिए थे। 1995 में जैन हवाला कांड में नाम आने के बाद आडवाणी ने लोकसभा से इस्तीफा दे दिया था और कहा था कि वह इस आरोप से बरी होने के बाद ही संसद में आएंगे। उनके खिलाफ चार्जशीट दायर हो चुकी थी। ऐसे में उन्हें पता था कि वह प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार होना तो दूर, 1996 का लोकसभा चुनाव भी नहीं लड़ पाएंगे। इसलिए नवंबर 1995 में भाजपा के मुंबई अधिवेशन के दौरान एक जनसभा में उन्होंने घोषणा कर दी कि भाजपा सत्ता में आई तो अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री होंगे। इस घोषणा से सबको हैरानी हुई थी। इससे आडवाणी ने न केवल अपना कद बढ़ा लिया, बल्कि मुरली मनोहर जोशी का रास्ता भी बंद कर दिया जो आडवाणी के बाद प्रधानमंत्री पद के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की दूसरी पसंद थे। सुप्रीम कोर्ट के नए संकेत ने एक बार फिर आडवाणी का रास्ता रोक दिया है।
अयोध्या आंदोलन ने शाहबानो मसले पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद शुरू हुई सांप्रदायिकता बनाम धर्मनिरपेक्षता की बहस को अपने चरम पर पहुंचा दिया था। देश की राजनीति इन दो खेमों में बंट गई थी। नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद से भाजपा विरोधी राजनीतिक दलों ने धर्मनिरपेक्षता बनाम सांप्रदायिकता के मुद्दे को एक तरह से छोड़ दिया है। उसका बड़ा कारण यह है कि जैसे भाजपा को अयोध्या के मुद्दे पर वोट नहीं मिलते उसी तरह उसके विरोधी धर्मनिरपेक्षता के नारे पर मतदाताओं का समर्थन जुटाने में नाकाम हो रहे हैं। इसलिए एक नई बहस शुरू हुई है कि मोदी के आने से देश में बहुसंख्यकवाद का खतरा पैदा हो गया है और इसकी वजह से देश के मुसलमानों के लिए खतरा बढ़ गया है। भाजपा का तर्क है कि मुसलमानों के तुष्टीकरण के नाम पर हिंदुओं का उत्पीड़न नहीं किया जा सकता। यह बहस अभी चलने वाली है। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव का नतीजा इस बहस की आगे की दिशा तय करेगा। इसी से 2019 के लोकसभा चुनाव का एजेंडा तय होगा।
राम मंदिर आंदोलन की दिशा और दशा तय करने में अदालतों की भी बड़ी भूमिका रही है। रामजन्म भूमि का मुद्दा 1949 से अदालत में है। अभी फैसला होना बाकी है। अयोध्या ढांचे के ध्वंस का मामला अभी निचली अदालत से ऊपर नहीं बढ़ा है। इसकी जांच के लिए एक आयोग भी बना जो डेढ़ दशक तक काम करने के बाद भी कुछ साबित नहीं कर पाया। अयोध्या ढांचे का ध्वंस और 1984 का सिख विरोधी दंगा हमारी जांच और न्याय व्यवस्था पर भी सवाल उठाता है। इन मामलों में तो न्याय देर से भी नहीं मिला। रामजन्म भूमि मामले में मुकदमा दायर करने वाले और बचाव करने वाले वादी-प्रतिवादी अब इस दुनिया में ही नहीं हैं। कितने गवाह दुनिया से विदा हो गए, इसका कोई हिसाब ही नहीं है। ये मामले जनमानस में बनी एक और धारणा की पुष्टि करते हैं कि बात जब बड़े और रसूख वालों की हो तो हमारी न्याय व्यस्था को जैसे सांप सूंघ जाता है। आडवाणी और दूसरे भाजपा नेताओं को आपराधिक षड्यंत्र से बरी करने के रायबरेली की सीबीआई कोर्ट के आदेश (जिसे इलाहाबाद हाईकोर्ट ने बहाल रखा) के खिलाफ 2011 में सीबीआई सुप्रीम कोर्ट गई। उसी की सुनवाई अब जाकर हो रही है। उम्मीद करना चाहिए कि 2017 में इस मसले पर अदालत का फैसला आ जाएगा।
रामजन्म भूमि-बाबरी मस्जिद का मुकदमा छह दशक से ज्यादा समय से चल रहा है तो ढांचा ध्वंस के मामले को इस साल 25 साल हो जाएंगे। ये फैसले जिसके भी पक्ष या विरोध में हों, इतिहास की दिशा बदलने वाले हो सकते हैं। फैसला जब भी हो, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि ढुलमुल न्याय व्यवस्था का इतिहास रचा जा रहा है। सुप्रीम कोर्ट यदि भाजपा नेताओं के खिलाफ आपराधिक षड्यंत्र चलाने को फैसला सुनाता है तो देर से ही सही न्याय मिलता हुआ दिखेगा। यदि भाजपा नेता तकनीकी आधार पर बरी हो जाते तो न्यायिक फैसले पर हमेशा संदेह बना रहता। अब उन पर आरोप साबित होता है या वे बरी होते हैं तो किसी तरह के पक्षपात का संदेह नहीं होगा। कहते भी हैं कि न्याय सिर्फ होना ही नहीं चाहिए, बल्कि होता हुआ दिखना भी चाहिए।
[ लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं ]