संजय गुप्त

संविधान निर्माता बाबा साहब भीमराव अंबेडकर की 126वीं जयंती को पूरे देश में जिस उत्साह से मनाया गया उससे एक बार फिर यह प्रमाणित हुआ कि भारतीय समाज में दलितों की पहचान को स्थापित करने में अंबेडकर ने किस तरह अविस्मरणीय योगदान दिया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अंबेडकर जयंती पर देशनिर्माण में उनके संघर्ष और योगदान को याद करते हुए उन्हें श्रद्धांजलि देने के साथ ही आधार युक्त भीम एप को जारी किया। चूंकि मोदी खुद भी पिछड़े वर्ग से आते हैं इसलिए वह समाज में व्याप्त ऊंच-नीच की भावना के गहरे असर को समझ सकते हैं। वह पीएम पद पर आसीन होने के बाद से लगातार अंबेडकर के आदर्शों पर चलने का आह्वान कर रहे हैं। वह न केवल अंबेडकर को भारतीय इतिहास में उनका यथोचित स्थान दिलाना चाहते हैं, बल्कि दलितों को भाजपा के करीब भी लाना चाहते हैं। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के नतीजे भी यह बता रहे हैं कि भाजपा एक बड़ी हद तक दलितों को अपनी ओर आकर्षित करने में सफल रही है। जात-पांत और ऊंच-नीच की भावना के आधार पर समाज का विभाजन भारत की एक सच्चाई है। इस विभाजन के कारण ही एक देश के रूप में भारत को कदम-कदम पर कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। भारत की अपेक्षित आर्थिक प्रगति न हो पाने का एक बड़ा कारण समाज का जातीय विभाजन और एक बड़ी आबादी के साथ सामाजिक भेदभाव है। यह एक तथ्य है कि बाहरी आक्रमणकारियों ने इस विभाजन का फायदा उठाया। बाद में अंग्रेजों ने भी इस विभाजन को और गहरा कर अपना हित साधा।
आजादी के बाद भारत के सामने यह सबसे बड़ी चुनौती थी कि वह खुद को कैसे एकजुट रखे। यह काम सबसे पहले संवैधानिक स्तर पर किया जाना था। संविधान सभा में अनेक विद्वान, कानूनी विशेषज्ञ और राजनेता शामिल हुए, लेकिन इन सबसे ऊपर अंबेडकर ने संविधान की रचना में जो योगदान दिया उसकी तुलना किसी से नहीं की जा सकती। संविधान सभा की प्रारूप समिति की अध्यक्षता करते हुए उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि भारत विभिन्न राज्यों के संघ के रूप में एक मजबूत गणतंत्र के रूप में स्थापित हो। वह अपने उद्देश्य में पूरी तरह सफल रहे। अंबेडकर के नेतृत्व में न केवल एक सशक्त संविधान की रचना की गई, बल्कि आजादी के बाद पहली बार दलितों के साथ सामाजिक भेदभाव के खिलाफ एक मजबूत मुहिम भी छेड़ी गई। यह अंबेडकर के प्रयासों का ही प्रतिफल था कि भारत ब्रिटेन के तत्कालीन प्रधानमंत्री की उस भविष्यवाणी को भी झुठलाने में कामयाब रहा कि आजादी मिलने के बाद भारत दस-बीस साल भी एकजुट नहीं रह पाएगा। 1940 से 1950 के बीच भारत के साथ-साथ तमाम अन्य देशों को भी आजादी मिली थी, लेकिन आज लोकतंत्र के मामले में भारत उन देशों से कहीं आगे खड़ा है। अगर आज सबसे विशाल लोकतंत्र के रूप में भारत की सफलता की मिसाल दी जाती है तो इसका सबसे अधिक श्रेय अंबेडकर को जाता है।
बाबा साहब को दलित होने के कारण तमाम बाधाओं का सामना करना पड़ा, फिर भी उन्होंने उच्च शिक्षा ग्रहण की और इंग्लैंड से कानून की डिग्री हासिल की। वहीं पर उन्होंने महसूस किया कि इंग्लैंड का समाज किस तरह एकजुट है और भारत में ऊंच-नीच की भावना कितनी अधिक है। अंबेडकर कांग्रेस के सदस्य थे। कांग्रेस को तब अगड़ों की पार्टी माना जाता था, लेकिन अंबेडकर अपनी प्रतिभा और मेधा के बल पर अपना एक मुकाम बनाने में सफल रहे। उनकी इस क्षमता से गांधी, नेहरू, पटेल समेत सभी बड़े नेता प्रभावित हुए। यह दलितों के प्रति उनके योगदान का ही नतीजा है कि आज प्राय: सभी दल उनके आदर्शों पर चलने का संकल्प व्यक्त करते हैं।
देश में दलितों की आबादी करीब 25 प्रतिशत है। देश में दलितों के नाम पर राजनीति होने का सिलसिला भी आरंभ हो गया। दलित राजनीति के सहारे आगे बढ़ने का काम सबसे पहले तमिलनाडु में द्रमुक और फिर अन्नाद्रमुक पार्टी ने किया। कांग्रेस लंबे समय तक दलितों को अपने साथ जोड़े रखने में सफल रही, लेकिन धीरे-धीरे दलित उससे दूर हो गए। कांशीराम ने दलित राजनीति को एक नया आधार दिया। पंजाब से आए कांशीराम ने मायावती को साथ लेकर उत्तर प्रदेश में दलितों में राजनीतिक चेतना पैदा की। इसमें अंबेडकर माध्यम बने। वाजपेयी सरकार के समय अगड़ों की पार्टी मानी जाने वाली भाजपा ने भी दलितों के अधिकारों की जोरदार वकालत की। भाजपा ने मायावती को दो बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनने का अवसर दिया। हालांकि दोनों दलों में तालमेल स्थायी नहीं रहा, लेकिन मायावती राजनीतिक तौर पर मजबूत हुईं। लगातार दो बार पराजय का सामना करने के बावजूद वह अभी भी दलितों की एक मजबूत नेता हैं। मुख्यमंत्री के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान उन्होंने दलित पहचान को आगे बढ़ाने के लिए नोएडा और लखनऊ में स्मारक तो बनवाए, लेकिन सुशासन के मोर्चे पर उल्लेखनीय सफलता न हासिल करने के कारण ये स्मारक ही बसपा की हार का कारण भी बने। यह देखना सुखद है कि अंबेडकर की समृति संबंधी आयोजनों पर उनके विभिन्न स्मारकों में दलितों की भारी भीड़ बिना किसी राजनीतिक उपक्रम के जुटती है। भीड़ की यह जुटान यही बताती है कि दलित समाज किस तरह अंबेडकर के जन्म दिवस को एक उत्सव की तरह मनाता है।
यह उत्सव भाव आगे भी बने रहना चाहिए और इसमें समाज के सभी वर्गों की हिस्सेदारी दिखनी चाहिए। एक समय उत्सव का यह माहौल गांधी और नेहरू जयंती के अवसर पर भी दिखता था, लेकिन धीरे-धीरे इन दोनों नेताओं के जन्म दिवस राष्ट्रीय अवकाश बनकर रह गए। भले ही समय के साथ ये तिथियां एक अवकाश भर बनकर रह गई हों, लेकिन भारत के इतिहास, वर्तमान और भविष्य के लिए इन तारीखों को कभी भुलाया नहीं जा सकता। इस पर विचार होना चाहिए कि महापुरुषों के स्मरण संबंधी आयोजन फिर से एक उत्सव का रूप कैसे लें? ध्यान रहे कि महापुरुष तभी वास्तव में प्रेरणास्रोत बने रह सकते हैं जब उनकी स्मृति संबंधी आयोजन एक उत्सव की तरह उत्साह के साथ मनाए जाएं। इस संदर्भ में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का यह कहना सही है कि महापुरुषों के स्मरण के नाम पर स्कूल बंद करने की परंपरा ठीक नहीं। उत्तर प्रदेश सरकार ने फैसला किया है कि अब महापुरुषों की जयंती और पुण्य तिथि पर स्कूलों में विशेष कार्यक्रम आयोजित होंगे ताकि बच्चे उनके संघर्ष और गौरवमयी व्यक्तित्व के बारे में जान सकें। आज के दौर में ऐसी किसी पहल की आवश्यकता इसलिए और बढ़ गई है, क्योंकि अब ऐसे तमाम आयोजन औपचारिक तौर पर मनाए जाने लगे हैं। इस औपचारिकता को उत्सवधर्मिता में बदलने की जरूरत है। महापुरुषों के जन्म दिन उत्साह और सभी की भागीदारी के साथ इसलिए मनाए जाने चाहिए, ताकि हमारी भावी पीढ़ी उनके महत्व से सही तरह परिचित हो और उनसे प्रेरणा प्राप्त करे।

[ लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं ]