ए रहमान

तीन तलाक के संबंध में सुप्रीम कोर्ट के समक्ष दायर अपने शपथ पत्र में मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने कहा है कि तीन तलाक कुरान से वैध एवं प्रमाणित है। इस दावे को चुनौती दी जा चुकी है, परंतु लगता है कि यह स्वयंभू बोर्ड हर हाल में अपने गलत काम को सही ठहराने पर तुला हुआ है और इसके लिए अगर कुरान को भी तोड़ना-मरोड़ना पड़े तो उसे परहेज नहीं। सुप्रीम कोर्ट के समक्ष पेश मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के हलफनामे का अनुच्छेद 6-1 कहता है कि मूलरूप से इस्लाम में तलाक अप्रिय है। इसकी अनुमति सिर्फ उस समय है जब यह अत्यंत आवश्यक हो जाए। एक बार में तीन तलाक अप्रिय है, परंतु वह गैर रजई तलाक (जिसको रद न किया जा सके) हो जाता है। चारों सुन्नी मसलकों यानी संप्रदायों-हनफी, शाहफई, मालकी और हंबली के अनुसार तलाक कितनी बार बोला जाए, इसका संबंध एक अथवा एक से अधिक अवसरों पर घोषणा करने से नहीं है। अगर कोई व्यक्ति दो बार तलाक कह दे तो दो बार और तीन बार कह दे तो तीन बार ही माना जाएगा और निकाह तुरंत ही टूट जाएगा।
कुरान में तलाक के बारे में क्या कहा गया है, इसकी सटीक व्याख्या अल्लामा इब्ने कसीर द्वारा की गई है। उनके अनुसार- ‘‘इस्लाम से पहले यह दस्तूर था कि पति जितनी बार चाहे तलाक देता चला जाता और इद्दत (तलाक पूर्ण होने की समय सीमा) पूरी होने से पहले ही तलाक रद कर देता था। इससे महिलाओं को बहुत परेशानी होती थी। इसलिए इस्लाम ने तलाक देने की सीमा सिर्फ दो बार ही निर्धारित कर दी थी। तीसरी बार तलाक देने के पश्चात उसको रद करने का कोई अधिकार नहीं रहेगा। हदीसों के एक संग्रह में लिखा है कि तीन तलाक देने के पश्चात रद करना निषेध है। इब्ने अबीहातिम में उल्लेख है कि एक व्यक्ति ने अपनी पत्नी से कहा कि न तो मैं तुझे रखूंगा और न ही छोडूंगा। पत्नी ने पूछा किस प्रकार? इस पर पति ने कहा मैं तुझे तलाक दे दूंगा और जब इद्दत का समय आएगा तो तलाक रद कर लूंगा। फिर तलाक दे दूंगा और फिर इद्दत समाप्त होने से पहले रद कर लूंगा। ऐसा ही करता चला जाऊंगा। वह महिला मोहम्मद साहब के पास गई। इस संदर्भ में कुरान की एक आयत रवायत बनी और लोगों ने तलाक का ध्यान रखना आरंभ किया। वे सतर्क हो गए कि तीसरे तलाक के पश्चात पति को तलाक को रद करने का कोई अधिकार प्राप्त नहीं है। इस मामले में यह स्पष्ट भी किया गया कि दो तलाक तक तो पति को अधिकार है कि सुधार के उद्देश्य से अपनी पत्नी को लौटा ले, अगर वह इद्दत के अंदर है। यह भी अधिकार है कि मत लौटाए और इद्दत समाप्त हो जाने दो ताकि वह दूसरे से निकाह करने के योग्य हो जाए। अगर तीसरी बार तलाक देना चाहता हो तो भलाई के साथ दे। न पत्नी का कोई अधिकार छीने, न उस पर कोई अत्याचार करे और न ही उसे कोई नुकसान पहुंचाए। एक व्यक्ति ने मोहम्मद साहब से तीसरे तलाक के बारे में सवाल किया तो उन्होंने स्पष्ट किया कि जब तीसरे तलाक का इरादा करे तो इस मकसद से स्त्री को परेशान करना या उस पर अत्याचार करना हराम यानी निषेध है ताकि वह अपना अधिकार छोड़कर तलाक की इच्छा प्रकट करे। मोहम्मद साहब का बताया हुआ तरीका यही है कि तलाक एक-एक करके ही दिया जाए। इसमें बदलाव नहीं होना चाहिए। इसकी पुष्टि हदीस यानी मोहम्मद साहब के कथन में भी होती है। मोहम्मद साहब को एक बार यह पता चला कि किसी व्यक्ति ने पत्नी को तीनों तलाक एक साथ ही दे दिया है तो वह बहुत नाराज हो गए और कहने लगे कि मेरी मौजूदगी में ही अल्लाह की पुस्तक के साथ खिलवाड़ किया जाने लगा है।’’
इब्ने कसीर की व्याख्या से साबित होता है कि मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने जिस आयत का हवाला दिया है वह एक बार में तीन तलाक से संबंधित नहीं है, अपितु उसके विरोध में है। अगर यह जानबूझकर किया गया है तो न्यायालय ही नहीं, अल्लाह को धोखा देने के समान है। अपनी लिखित दलीलों में बोर्ड ने तीन तलाक को चारों सुन्नी संप्रदायों में मान्य एवं प्रमाणित होने का दावा किया है। यह बिल्कुल गलत है। यह हैरानी की बात है कि शिया संप्रदाय को उल्लेख करने योग्य भी नहीं समझा गया, जबकि लोकप्रिय शिया विद्वान मौलाना कल्बे सादिक बोर्ड के सदस्य एवं उपाध्यक्ष हैं। ऐसे में एक अलग शिया पर्सनल लॉ बोर्ड की स्थापना की मांग उचित जान पड़ती है।
मैं इस ओर फिर ध्यान दिलाना चाहता हूं कि स्वयं मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की मिन्नत उल्लाह रहमानी द्वारा लिखी पुस्तक ‘निकाह और तलाक’’ में तीन तलाक को कुरान के कानून के विरुद्ध बताया गया है। जाहिर है कि जब यह बात सुप्रीम कोर्ट के सामने आएगी तब उसकी क्या प्रतिक्रिया होगी, इसे कानून का साधारण छात्र भी बता सकता है। शायद इसी कारण मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की लगातार आलोचना हो रही है। अब तो बोर्ड की कानूनी एवं संवैधानिक हैसियत पर भी प्रश्न खड़ा होने लगा है। बोर्ड के प्रबंधन और आंतरिक कार्य प्रणाली का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि उस पर जिन लोगों को नियंत्रण है उनमें से कोई भी धार्मिक विद्वान की श्रेणी में नहीं आता है। इतने महत्वपूर्ण संगठन की सदस्यता की प्रक्रिया भी संदिग्ध है। उस पर कई बार सवाल उठ चुके हैं। एक बार एक वृद्ध सदस्य ने नए सदस्य के लिए अपनी बहू का नाम आगे किया। इसी तरह एक बार उस महिला को सदस्य बना दिया गया जिसने एक पदाधिकारी की बेटी का निकाह तय कराया था। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड को कोई संवैधानिक अथवा कानूनी समर्थन प्राप्त नहीं है। बोर्ड को समझना होगा कि शरीयत में हस्तक्षेप बर्दाश्त नहीं का नारा लगाकर शरीयत की रक्षा नहीं की जा सकती। देश के लगभग बीस करोड़ मुसलमानों के प्रतिनिधित्व का दावा करने के चलते बोर्ड न सिर्फ अपने समुदाय, अपितु सरकार एवं न्यायालय के प्रति भी उत्तरदायी है। पिछले 44 वर्षों में बोर्ड ने अपने उत्तरदायित्व का निर्वाह ठीक ढंग से नहीं किया है। उसने मुस्लिम पर्सनल लॉ अथवा शरीयत यानी कुरान के कानून के मामले में भी कभी कोई ठोस कदम नहीं उठाए हैं।
[ लेखक सुप्रीम कोर्ट में वकील एवं इस्लामी मामलों के जानकार हैं ]