आस्ट्रेलिया से वन-डे सीरीज हारने के बाद अपनी कप्तानी को लेकर पूछे गए एक सवाल पर महेंद्र सिंह धौनी का यह कटाक्ष अजीब ही था कि मेरी कप्तानी की क्षमता परखने के लिए तो जनहित याचिका दाखिल करने की जरूरत पड़ेगी, लेकिन हैरत नहीं कि कोई सचमुच धौनी के नेतृत्व में भारतीय टीम की हार पर जनहित याचिका दाखिल कर दे। हैरत इस पर भी नहीं कि अदालत इस याचिका पर सुनवाई को भी राजी हो जाए। आखिर जब सुप्रीम कोर्ट संता-बंता के चुटकुलों के खिलाफ दायर जनहित याचिका की सुनवाई कर सकता है तो फिर कुछ भी हो सकता है। यह एक तथ्य है कि हमारी सबसे बड़ी अदालत संता-बंता के चुटकुलों पर सुनवाई कर रही है और वह भी तब जब लोक महत्व के ढेरों मुकदमें लंबित हैं। लंबित मुकदमों के बोझ के लिए तमाम कारण जिम्मेदार हैं। इनमें प्रमुख हैं अदालतों के पास संसाधनों की कमी, अप्रासंगिक हो चुके कानून और खुद सरकारों की ओर से अपने ही नागरिकों से मुकदमा लडऩे की प्रवृत्ति, लेकिन एक कारण अदालतों का रवैया भी है। जनहित याचिकाओं के नाम पर न जाने कितने फालतू मामले अदालतों के पास पहुंच रहे हैं। जनहित याचिकाओं की उपयोगिता से इंकार नहीं, लेकिन यह भी ठीक नहीं कि जनहित याचिकाएं दाखिल करने वाली दुकानें खुल जाएं। कुछ लोग किस्म-किस्म की जनहित याचिकाएं दाखिल करने के लिए ही जाने जाते हैं। ऐसे ही लोग धौनी के खिलाफ विभिन्न अदालतों में जनहित याचिकाएं दाखिल कर चुके हैं। ये याचिकाएं एक पत्रिका में धौनी को भगवान विष्णु की तरह से चित्रित करने के खिलाफ दाखिल की गई थीं।

कोई पत्र-पत्रिका किसी व्यक्ति को किस रूप में चित्रित करती है, इसमें उस व्यक्ति का बस नहीं। कई अदालतों को यह साधारण सी बात समझ में नहीं आई और उनमें से एक ने पिछले दिनों धौनी के खिलाफ गैर जमानती वारंट जारी कर दिया। ऐसा तब हुआ जब इसी मामले में बेंगलुरु की एक अदालत की कार्यवाही पर सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगा रखी है। आश्चर्य नहीं कि अपने खिलाफ इन याचिकाओं के कारण भी धौनी ने उक्त कटाक्ष किया हो। समस्या केवल छोटे-मोटे मसलों पर जनहित याचिकाओं की सुनवाई किए जाने की ही नहीं, बल्कि अदालतों की ओर से सब कुछ ठीक कर देने की प्रवृत्ति से भी है। इसी प्रवृत्ति के चलते यह सवाल रह-रह कर उभरता रहता है कि क्या अदालतें अपने अधिकारों का अतिक्रमण कर रही हैं?

इस बार मकर संक्रांति-पोंगल पर तमिलनाडु में सांड़ों का खेल-जलीकट्टू नहीं हो सका तो आंध्र प्रदेश में मुर्गों की और असम में बुलबुल की लड़ाई भी नहीं हो सकी, क्योंकि आंध्र और असम उच्च न्यायालय ने इन खेलों पर पाबंदी लगा रखी है। सुप्रीम कोर्ट ने जलीकट्टू पर रोक 2014 में ही लगा दी थी। तभी से वहां इस फैसले का विरोध हो रहा था। चूंकि यह विरोध तमिलनाडु के सभी दलों के साथ-साथ आम लोगों की ओर से भी किया जा रहा था इसलिए केंद्र सरकार ने एक अधिसूचना जारी कर कुछ शर्तों के साथ जलीकट्टू को अनुमति दे दी। इन शर्तों के पालन के बाद सांड़ों को प्रताडि़त किए जाने और खेल के दौरान लोगों के जख्मी होने की गुंजाइश एक बड़ी हद तक खत्म हो गई थी। एनिमल वेलफेयर बोर्ड नामक एक संस्था को केंद्र सरकार की अधिसूचना रास नहीं आई। वह कुछ और पशु-पक्षी प्रेमी संगठनों के साथ सुप्रीम कोर्ट पहुंच गई। सुप्रीम कोर्ट ने जलीकट्टू पर केंद्र सरकार की अधिसूचना को किनारे कर दिया। तमिलनाडु में कई साल बाद लोग जब इससे उत्साहित थे कि इस बार जलीकट्टू हो सकेगा तब उन्हें सूचना मिली कि यह संभव नहीं। जाहिर है लोग नाराज हुए और उन्होंने धरना-प्रदर्शन भी किया। इसमें दो राय नहीं कि जलीकट्टू का खेल जोखिम भरा है, लेकिन आखिर जोखिम किस खेल में नहीं है? दुनिया के हर हिस्से में ऐसे तमाम खेल हैं जिनमें पशु-पक्षियों की भागीदारी होती है। कुछ खेल तो ऐसे हैं जिनमें पशुओं को जान से भी हाथ धोना पड़ता है। जलीकट्टू ऐसा नहीं है। यह एक पारंपरिक खेल के साथ त्योहार का हिस्सा भी है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उस पर पाबंदी लगाने के अपने फैसले को सही ठहराया। उसने यह टिप्पणी भी की कि आखिर जलीकट्टू जैसे त्योहार की जरूरत क्या है? तमिलनाडु के लोगों को फैसले से ज्यादा इस तरह की टिप्पणी पर एतराज है। वे पूछ रहे हैं कि क्या सुप्रीम कोर्ट ऐसा ही नजरिया बकरीद पर पशुओं की कुर्बानी के मामले में भी रखता है?

सुप्रीम कोर्ट की ओर से अपने अधिकारों के अतिक्रमण का सवाल दिल्ली में प्रदूषण दूर करने के उस आदेश से भी उठा है जिसमें उसने कई तरह के वाहनों पर किस्म-किस्म की रोक लगाई। अदालतें यह तो कह सकती हैं कि सरकार किसी समस्या को दूर करने के लिए ठोस कदम उठाए और उनसे उसे अवगत कराए, लेकिन वे सरकार का काम अपने हाथ में नहीं ले सकतीं। अपने देश में अदालतें कई बार सरकार के हिस्से का भी काम करती दिखती हैं। सुप्रीम कोर्ट कालेधन के खिलाफ भी सक्रिय है और गंगा की सफाई को लेकर भी। दोनों ही मामलों में नतीजे उत्साहजनक नहीं हैं। गंगा कार्य योजना के पहले चरण की शुरुआत 1985 में हुई थी, लेकिन सुप्रीम कोर्ट 1984 से ही गंगा की गंदगी को दूर किए जाने संबंधी याचिका की सुनवाई कर रहा है। यह सही है कि एक के बाद एक सरकारों ने गंगा की सफाई के नाम पर अरबों रुपये खर्च कर दिए और गंगा साफ नहीं हुई, लेकिन यह भी सही है कि सुप्रीम कोर्ट की डांट-फटकार भी कुल मिलाकर निष्प्रभावी ही रही है। सुप्रीम कोर्ट ने तंबाकू मिश्रित पान मसाले यानी गुटखे की बिक्री पर पाबंदी लगाई और आज स्थिति यह है कि वह पहले से ज्यादा और धड़ल्ले से बिक रहा है। अदालतें हर एक मामले में हस्तक्षेप कर सकती हैं और जनहित के मामलों में तो उन्हें स्वत: हस्तक्षेप करना चाहिए, लेकिन जिस तरह सब कुछ सरकारें नहीं कर सकतीं उसी तरह अदालतें भी नहीं।

[लेखक राजीव सचान, दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं]