अभी एक साथ दो समाचार आए। एक सचेत केंद्रीय मंत्री ने अपने कार्यालय में अशुद्ध और घटिया हिंदी नोटिंग पर नाराजगी जताते हुए इस पर सावधानी के निर्देश दिए। दूसरा समाचार था कि संविधान की ‘आठवीं अनुसूची में मैथिली, भोजपुरी, राजस्थानी आदि बोलियों को स्थान देकर हिंदी को कमजोर करने’ के विरुद्ध कुछ साहित्यकारोंं ने सार्वजनिक सभा कर नाराजगी जताई है, लेकिन दोनों ही चिंताएं मूल समस्या को नहीं छूतीं। जिन्हें अच्छी हिंदी आती ही नहीं, वे मंत्री महोदय की डांट से वह कैसे लिख पाएंगे? फिर जब भारत की ‘राजभाषा’ होकर भी हिंदी की दुर्गति नहीं रुक रही तो आठवीं अनुसूची में किसी को न डालने से वह अच्छी कैसे हो जाएगी? पहले रोग की सही पहचान करनी चाहिए। मौसमी आक्रोश, आंदोलन से तो कुछ होने से रहा। उलटे राजनीतिक लोग इसका उपयोग लोगों को लड़ाकर अपनी रोटी सेंकने में करने लगेंगे। हिंदी वहीं रह जाएगी। इसलिए भाषा के साथ अपने संबंध के प्रकाश में मामले की गुत्थी समझनी चाहिए। यह हिंदी नहीं है जो कमजोर हो रही और जिसे बचाना है। हम कमजोर हो रहे हैं और हमें बचना है, जिसमें हिंदी हमारा बल बन सकती है। इस रूप में स्थिति को समझ कर बढ़ना चाहिए। हम भाषा को नहीं बनाते, भाषा हमें बनाती है। यह बाद में होता है कि भाषा के वरद्-पुत्र फिर उस भाषा को मांजते और विकसित करते हैं। भाषा के प्रश्न पर हमें भारतीय मनुष्य के रूप में बने होने की चिंता करनी चाहिए। तब दिखेगा कि हिंदी, संस्कृत के साथ किसी भारतीय का वास्तविक संबंध क्या है और विभिन्न बोलियों का और अंग्रेजी का तुलनात्मक स्थान क्या है?
हिंदी और सभी भारतीय भाषाएं मूलत: अंग्रेजी के बढ़ते अधिकार और कई मामलों में एकाधिकार के कारण उपेक्षित होती जा रही हैं। सर्वोच्च स्थानों में भी अच्छी हिंदी जानने-लिखने वाले न होना इसी का परिणाम है। जब सामान्य अंग्रेजी जानने से भी अच्छा काम, पदोन्नति आदि मिलती है तब साधारण युवा हिंदी, बंगला या तमिल की फिक्र ही क्यों करे? हमारी विगत दो पीढ़ियों को किसी ने बताया ही नहीं कि अपनी भाषा वास्तव में माता समान होती है, हमें पालने-बनाने वाली! हिंदी को बचाने की चिंता से पहले उसे गंभीरता से पढ़ने-पढ़ाने की चिंता करें। यह सरकार का नहीं, हमारा अपना काम है। समाज का काम है। जैसे हम अपनी स्वास्थ्य की चिंता और रक्षा करते हैं। अपनी भाषा के श्रेष्ठ साहित्य से बचपन से ही परिचय कराना कितना अनिवार्य है, इस की हमें समझ नहीं रह गई है। अन्यथा बच्चों को पहली कक्षा से ही अंग्रेजी पढ़ाने का पागलपन और अत्याचार नहीं किया जा रहा होता। यह हमारी अनेक दुर्बलताओं और समस्याओं का मूल कारण है। यह कितना भयंकर अपराध है, इसके लिए रवींद्रनाथ टैगोर के व्याख्यान ‘शिक्षा में हेर-फेर’ पढ़कर कुछ अनुमान हो सकता है। एक सौ पचीस वर्ष पहले कही गई उनकी बातें आज भी मार्मिक रूप से शब्दश: सत्य हैं। मिट्टी से अंकुरित होते बीज को जिस तरह जल, प्रकाश और वायु की जरूरत होती है ठीक उसी तरह दुनिया को जानना-पहचानना आरंभ करने वाले बालक को अपने श्रेष्ठ साहित्य से परिचय कराना जरूरी होता है। उसकी निहित क्षमताओं और व्यक्तित्व के उभरने, निखरने का वह अनिवार्य साधन है। उसी से उसकी भाषा बनती है। जिस बच्चे को अपनी भाषा और उसके महान साहित्य से परिचय ही नहीं कराया गया उसके अभाव का वर्णन ही नहीं किया जा सकता। कॅरियर, नौकरी आदि के नाम पर हमारे देश में शिक्षा को जिस तरह नष्ट कर दिया गया उसे समझाना कठिन है, मगर उसे समझे बिना हम अपनी अनगिनत समस्याएं भी नहीं समझ सकते।
कोई भाषा केवल पाठ्य-पुस्तक, अखबार पढ़ने या गप-शप करने से नहीं आती। असली भाषा साहित्य की भाषा ही होती है। जिससे परिचय करने और संबंध रखने से ही वह आती है। जिसने प्रसाद, पंत, मैथिलीशरण, निराला, अज्ञेय, दिनकर से लेकर भारतेंदु, प्रेमचंद, महादेवी, रेणु, निर्मल वर्मा आदि रचनाकारों को स्वेच्छा नहीं पढ़ा वह प्राय: अच्छी हिंदी नहीं लिख-बोल सकता। यह सभी भाषाओं के लिए सच है। महान साहित्य का अध्ययन किए बिना अच्छी भाषा और अच्छे चिंतन की चाह हम छोड़ दें तो ही अच्छा। अपनी भाषा पर अधिकार के बिना कोई विदेशी भाषा भी प्राय: अच्छी नहीं बनती। हमारे देश का संपूर्ण भाषा-ज्ञान और इस प्रकार चिंतन-मनन भी अत्यंत पंगु हो गया है। इसका उपाय किसी आदेश से शायद ही संभव है। इसके लिए हिंदी के सर्वश्रेष्ठ और अन्य महान साहित्य को भी बच्चों और युवाओं के बीच गर्व से, प्रेम पूर्वक और सुंदर रूप में सुलभ कराना चाहिए। हमें ब्रिटेन, अमेरिका आदि से यह भी सीखना चाहिए कि किस तरह उन्होंने अंग्रेजी में अपना और विश्व का महान साहित्य अनगिनत तरह के आकर्षक, कलात्मक, विशिष्ट और विद्वत संस्करणों में सुलभ कराया। अपने बच्चों को और पूरी दुनिया के लिए भी। जिस लगन, लगाव और श्रद्धा से वह कार्य किया गया, हमें कभी उस पर विचार करना चाहिए। उस कार्य को सदियों से अदद लेखकों, प्रकाशकों, संस्थाओं ने स्वेच्छा से सहज धर्म के रूप में किया। उस तुलना में हमने हिंदी और भारतीय भाषाओं के साहित्य के साथ क्या किया है? अपने साहित्य को घर-निकाला देने और हत्या कर देने से ही इसकी उपमा हो सकती है। महान भारतीय साहित्य और साहित्यकारों की रचनाएं जिस त्रुटि भरे और उपेक्षित रूप में छापी जाती हैं उसकी जितनी भत्र्सना की जाए, कम है। यह तब है जब अपने साहित्य को सुलभ रूप में देश के कोने-कोने में बच्चों और युवाओं के लिए सुलभ कराने के लिए हमारे समाज और सरकार, किसी के पास धन की कमी नहीं है। गीता प्रेस के उदाहरण से यह समझा जा सकता है कि अपने संपूर्ण महान साहित्य को घर-घर, प्रेम-पूर्वक पहुंचाया जा सकता है। अपनी भाषा, साहित्य और शिक्षा के लिए जरूरी कार्य यूरोप के छोटे-छोटे देश भी करते आ रहे हैं। उनके समाज की सुव्यवस्था, सुरुचि और स्वाभिमान का इस बात से भी संबंध है। नई पीढ़ियों को अपनी भाषा और सर्वोत्तम साहित्य प्रेम-पूर्वक पढ़ने के लिए प्रेरित किए बिना भारतीय भाषाओं का विकास क्या, समय के साथ अस्तित्व बचना भी असंभव है। इसलिए हिंदी के प्रसंग में बोलियों वाली बात को जरूरत से ज्यादा महत्व न दें। मुख्य बात है अंग्रेजी के साथ जुड़े विशेषाधिकार एवं सत्ता संबंध को समाप्त करना और अपनी भाषा और महान साहित्य के प्रति लगाव स्थापित करना। इन दो कार्यों का कोई विकल्प नहीं है।
[ लेखक शंकर शरण, राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं ]