सी उदयभास्कर

भारत की सैन्य और सामरिक सुरक्षा के लिहाज से इस साल मई का महीना कई मायनों में महत्वपूर्ण है। इसकी शुरुआत बड़े अशुभ ढंग से हुई जब एक मई को दो भारतीय सैनिकों के सिर कलम कर दिए गए जिसके बाद स्वाभाविक रूप से देश भर में आक्रोश की लहर दौड़ गई। यह जनता के गले नहीं उतर रहा कि पिछले साल सर्जिकल स्ट्राइक जैसे कदम के बावजूद भी ऐसे हमले हो सकते हैं। जनता चाहती है कि निर्णायक प्रधानमंत्री मोदी इसका करारा जवाब दें। इन दिनों कश्मीर घाटी भी भारी आंतरिक असंतोष के दौर से गुजर रही है। यहां तक कि छात्र-छात्राएं भी सुरक्षा बलों पर पत्थरबाजी करने से गुरेज नहीं कर रही हैं। सेना ने संकेत दिए हैं कि वह आतंकियों और उनके मददगारों की धरपकड़ में कोई कोताही नहीं बरतेगी, भले ही इसके लिए कितना बड़ा अभियान ही क्यों न चलाना पड़े। इसी महीने की 11 तारीख को हम पोखरण परमाणु परीक्षण की 19वीं वर्षगांठ मनाने जा रहे हैं। 19 साल पहले तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन को पत्र में भारत की सामरिक सुरक्षा में चीन की चुनौती का उल्लेख किया था। चीन को लेकर बेचैनी जाहिर करते हुए वाजपेयी ने एशिया की दो बड़ी ताकतों के बीच ‘भरोसे’ की कमी का भी हवाला दिया था।
आतंकवाद, वैश्विक परमाणु मंच और अभी हाल में ही दलाई लामा की अरुणाचल यात्रा जैसे सामयिक मसलों के लिहाज से अविश्वास की खाई और चौड़ी ही होती नजर आई है। चीन ने राजनीतिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण कदम उठाते हुए भारत-रूस-चीन के विदेश मंत्रियों की त्रिस्तरीय बैठक में भाग लेने से इन्कार कर दिया। यह बैठक अप्रैल में नई दिल्ली में आयोजित होनी थी। मानों यही काफी नहीं था। चीन अपनी महत्वाकांक्षी परियोजना ‘वन बेल्ट, वन रोड’ यानी ओबीओआर के लिए 14-15 मई को राजधानी बीजिंग में एक बड़ा सम्मेलन आयोजित करने जा रहा है। राष्ट्रपति शी चिनफिंग इस दौरान रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन सहित दुनिया के 28 दिग्गज नेताओं की मेजबानी करने जा रहे हैं। भारत ने इस बड़े आयोजन में शिरकत नहीं करने का फैसला किया है। चीन के संदर्भ में सेना प्रमुख जनरल बिपिन रावत ने अपने पूर्ववर्तियों की ही बात दोहराई है कि भारत अपनी सेना को पर्याप्त वित्तीय मदद नहीं मुहैया करा रहा है। चार मई को एक सार्वजनिक समारोह में उन्होंने कहा, ‘भले ही हमारी अर्थव्यवस्था का तेजी से विस्तार हो रहा हो, लेकिन सेना को उसका उचित हिस्सा नहीं मिल रहा है। मेरे खयाल से हमें यहां चीन से एक सबक सीखने की जरूरत है।’ वह सबक यही है कि सेना को समुन्नत बनाया जाए।
इसी महीने मोदी सरकार को सत्ता में आए पूरे तीन साल हो जाएंगे। ऐसे में ऊपर दिए ब्योरे को भारत की जटिल सुरक्षा और सामरिक चुनौतियों का एक संक्षिप्त परिदृश्य कहा जा सकता है। यह परिदृश्य उस शख्स के लिए बेहद लचर स्थिति कही जाएगी जिसने उसे सुधारने के बड़े-बड़े वादे किए थे और तथाकथित रूप से कमजोर कहे जाने वाले मनमोहन सिंह पर चुनाव अभियान के दौरान काफी कटाक्ष भी किए थे। भारतीय मतदाताओं को भरोसा हो गया था कि ‘निर्णायक’ मोदी राष्ट्रीय सुरक्षा की चुनौती का कहीं बेहतर तरीके से तोड़ निकालेंगे। भारत में रक्षा प्रबंधन के शीर्ष ढांचे से जुड़ी बड़ी ढांचागत खामियों को देखते हुए बीते तीन साल बदहाल ही कहे जाएंगे। एक विश्लेषक के रूप में प्रधानमंत्री के स्तर पर सबसे बड़ी चूक तो यही रही है कि सत्ता संभालने के बाद से वह पूर्णकालिक रक्षा मंत्री भी नहीं नियुक्त कर पाए हैं। पूर्व रक्षा मंत्री मनोहर पर्रीकर की गोवा वापसी के बाद वित्त मंत्री अरुण जेटली को दूसरी बार रक्षा विभाग का अतिरिक्त प्रभार संभालना पड़ रहा है। पूर्णकालिक रक्षा मंत्री की नियुक्ति के हाल-फिलहाल कोई आसार भी नहीं दिख रहे हैं। तमाम ऐसे मसले हैं जो कैबिनेट स्तर पर राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े मुद्दों पर प्राथमिकता के आधार पर कार्रवाई की जरूरत जता रहे हैं, मगर पूर्णकालिक रक्षा मंत्री के अभाव में उनका समाधान तो दूर, उनका खाका खींचना भी मुश्किल हो सकता है। यहां यह दोहराना जरूरी है कि भारत की व्यापक राष्ट्रीय सुरक्षा चुनौती का विस्तार केवल भारतीय सेना और रक्षा मंत्रालय तक ही सीमित नहीं है। आंतरिक सुरक्षा का मसला भी उतना ही महत्वपूर्ण है और केवल कश्मीर ही अशांत नहीं है। देश के कई राज्य नक्सली हिंसा से जूझ रहे हैं। इनमें प्रमुख है छत्तीसगढ़ जो कई वर्षों से माओवाद की आग में झुलस रहा है। बीते 25 अप्रैल को सुकमा में सीआरपीएफ के 25 जवान ऐसी ही नक्सली हिंसा की भेंट चढ़ गए। जाहिर है कि इससे कुपित देश में एक बार फिर आक्रोश की लहर दौड़ गई और खबरिया चैनल आक्रोश की इस आग में और घी डालने का काम करने लगे। इससे देश की स्मृतियों में अप्रैल, 2010 की वे कड़वी यादें ताजा हो गईं जब माओवादियों ने सीआरपीएफ के 76 जवानों की हत्या कर दी थी। उस समय विपक्ष में रही भाजपा ने इस पर खूब हंगामा मचाया था और तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की नाकामी पर सवाल खड़े किए थे।
अप्रैल, 2017 में भी देश को यह मालूम पड़ा कि सुकमा हमले से पहले दो महीनों तक सीआरपीएफ के पास पूर्णकालिक महानिदेशक नहीं था। आख्रिर क्यों? ऐसा इसलिए, क्योंकि गृह मंत्रालय को लगा ही नहीं कि यह नियुक्ति भी महत्वपूर्ण है। यहां एक बार फिर मैं प्रधानमंत्री को ही जिम्मेदार मानूंगा जो आंतरिक सुरक्षा से जुड़े मामलों में ऐसी शिथिलता को शह दे रहे हैं। राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े मुद्दों पर अक्सर यही देखा गया है कि मोदी सरकार सोशल मीडिया की शरणागत हो जाती है। पिछले कुछ महीनों के दौरान सुरक्षा के मोर्चे पर किसी भी गड़बड़ी या शहादत के बाद मंत्री राष्ट्रवाद का तुर्रा छेड़कर गुनहगारों को सबक सिखाने की बात करते हैं। यह काम भी ट्विटर पर हो रहा है।
यह पर्याप्त नहीं है। राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ी चुनौती का हल निकालना मुश्किल काम है। इसे सरकार के स्तर पर करना चाहिए और ऐसी जानकारियां सार्वजनिक दायरे में नहीं आनी चाहिए। मैंने बार-बार करगिल समिति की सिफारिशों को लागू करने की राह में आ रही दिक्कतों की ओर ध्यान आकृष्ट कराया है। इन सिफारिशों को संसद में पेश हुए भी 17 साल बीत चुके हैं। तब केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी की अगुआई वाली पहली राजग सरकार सत्ता में थी। राष्ट्रीय सुरक्षा के मोर्चे पर कायम प्रमुख चुनौतियों की समीक्षा और उनके समाधान के लिए प्रधानमंत्री मोदी के पास एक तरह से महज साल भर का ही वक्त बचा है, क्योंकि उसके बाद वह चुनावी अवतार ले लेंगे। इसमें एक पूर्णकालिक रक्षा मंत्री की नियुक्ति शायद सबसे पहला और जरूरी कदम होगा।
[ लेखक सामरिक मामलों के विशेषज्ञ हैं ]