हृदयनारायण दीक्षित

हमारे संविधान निर्माताओं ने ब्रिटिश तर्ज का संसदीय जनतंत्र अपनाया और अनेक संवैधानिक संस्थाएं गढ़ीं। केंद्रीय स्तर पर संसद बनी और केंद्र को संसद के प्रति जवाबदेह बनाया गया। राज्य विधानमंडलों के समक्ष जवाबदेह बने। संसद और विधानमंडल चुनाव के लिए निष्पक्ष निर्वाचन आयोग बना। 15 जून, 1949 को संविधान सभा में निर्वाचन आयोग के कृत्यों पर बहस हुई। आयोग को कर्मचारी-अधिकारी देने का प्रश्न उठा। डॉ.अंबेडकर ने कहा, ‘आयोग के पास कम काम होगा।’ इस पर शिब्बन लाल सक्सेना ने कहा, ‘संविधान में निर्धारित नहीं है कि अमेरिकी तर्ज पर यहां चार वर्ष में निर्वाचन अवश्य होगा। संभव है कि केंद्र और राज्यों के चुनाव एक साथ न हों। तब हर समय कहीं न कहीं चुनाव होते रहेंगे।’ उनकी आशंका सच निकली। संप्रति भारत चुनाव व्यस्त देश है। कभी लोकसभा चुनाव तो बहुधा विधानसभाओं के चुनाव। त्रिस्तरीय पंचायती चुनाव और स्थानीय निकाय चुनाव भी अक्सर होते रहते हैं। नीति आयोग ने 2024 से लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने का सुझाव दिया है। राष्ट्रपति भी गणतंत्र दिवस की पूर्वसंध्या पर दोनों चुनाव एक साथ कराने का विचार पेश कर चुके हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का भी यही मत है। 2014 में भाजपा ने चुनावी घोषणापत्र में इसका वादा भी किया था।
लगातार चुनावी व्यस्तता राष्ट्रीय विकास में बाधा है। अलग-अलग चुनाव से प्रशासनिक तंत्र की व्यस्तता बनी रहती है। चुनाव आचार संहिता के कारण विकास कार्य अवरुद्ध हो जाते हैं। अरबों का खर्च भी होता है। साथ- साथ चुनाव का विचार स्वागतयोग्य है। प्रधानमंत्री ने सभी दलों से अपील करते हुए कहा था, ‘एक साथ चुनाव से सभी दलों का कुछ नुकसान होगा। हमें भी नुकसान होगा, लेकिन इसे संकीर्ण राजनीतिक दृष्टि से नहीं देखा जाना चाहिए।’ 1951-52 में पहली लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ हुए थे। 1967 तक दोनों के चुनाव साथ-साथ हुए थे। 1968 से यह क्रम टूट गया। दरअसल संविधान निर्माताओं ने सरकारों का कार्यकाल सुनिश्चित नहीं किया। यहां सरकारों का जीवन संसदीय बहुमत की डोर से बंधा हुआ है। अंबेडकर ने संविधान सभा में स्पष्ट किया था कि सरकारी जवाबदेही को स्थिरता (कार्यकाल) की तुलना में ऊपर रखा गया है। सदन में सरकारों की संवैधानिक जवाबदेही है। इस आधारभूत सिद्धांत में सरकारों का कार्यकाल अनिश्चित है। दलतंत्र की अपनी वरीयताएं और अपने कार्य व्यवहार हैं। यहां बहुमत स्थाई नहीं होता। दल-बदल प्रावधान में भी छिद्र किए गए। थोक दल बदल को दल टूट कहा गया। तमाम सरकारें अल्प मृत्यु की शिकार हुईं। इससे साथ-साथ चुनाव का क्रम भंग हो गया। सभी राजनीतिक दलों का कर्तव्य है कि वे नुकसान की तुलना में राष्ट्रहित पर ध्यान दें। साथ-साथ चुनाव से राष्ट्रीय दल क्षेत्रीय संदर्भों से जुड़ने की ओर बढ़ेंगे और क्षेत्रीय दलों की दृष्टि राष्ट्रीय होगी, लेकिन क्षेत्रीय दलों की चिंता बड़ी है। वे विधानसभा चुनावों में क्षेत्रीय प्रश्नों तक ही सीमित रहते हैं। वे लोकसभा चुनावों में भी क्षेत्रीय आग्र्रहों के साथ ही बढ़त लेते हैं। तमाम क्षेत्रीय दल राज्य स्तरीय भी नहीं हैं। कई राज्यों के कुछ दलों का प्रभाव तो कुछ जिलों तक ही सीमित हैं। क्षेत्रीय दल एक साथ चुनाव के विचार से स्वाभाविक ही भयभीत हैं। बीते कुछ वर्षों में राष्ट्रीयता का भाव देशव्यापी हुआ है। माकपा, भाकपा जैसे वामपंथी दल स्वयं को अंतरराष्ट्रीय विचारधारा वाला दल बताते हैं, लेकिन उनका प्रभाव क्षेत्र राज्य स्तर पर भी नहीं बचा है। एक साथ चुनाव का विचार क्षेत्रीय दलों के अस्तित्व का संकट बनकर उभरा है। चुनाव आयोग ने बेशक केंद्रीय विधि मंत्रालय के जवाब में दोनों चुनाव एक साथ कराने पर पहले ही सहमति दे दी थी, लेकिन क्षेत्रीय दलों की सहमति हासिल करना आसान नहीं लगता। वे विधानसभाओं का चुनाव अलग ही चाहते हैं।
एक साथ चुनाव का विचार आदर्श है। यदि क्षेत्रीय दलों को लगता है कि इससे उन्हें नुकसान होगा तो वे लोकसभा का चुनाव अलग और सभी विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने का प्रस्ताव स्वीकार करें। दोनों स्थितियों में संविधान संशोधन करना होगा। संशोधन में केंद्र और राज्य सरकारों को सुनिश्चित कार्यकाल देना होगा। अल्पमत के बावजूद सरकार को कार्यकाल पूरा करने का अवसर देना होगा या फिर लोकसभा और विधानसभा को मतदान के माध्यम से नई सरकार चुनने का प्रावधान करना होगा। तब सांसदों, विधायकों को सदन में अपने दल से अलग दल या नेता को मतदान करने की छूट देनी होगी। दसवीं अनुसूची के अनुसार दल से इतर मतदान से सदन की सदस्यता खोने का कानून प्रभावी है। मूल प्रश्न है कि बहुमत खो चुकी सरकार को पूरा कार्यकाल देने की नई व्यवस्था कैसे बने? क्या वैकल्पिक सरकार बनाने का अधिकार संसद या विधानसभा को दिया जा सकता है? क्या हमारा दलतंत्र स्थिर कार्यकाल और संवैधानिक जवाबदेही को एक साथ चला सकता है? क्या संवैधानिक जवाबदेही को छोड़कर स्थिरता को ही अपनाया जा सकता है? अमेरिका में ऐसा ही है। प्रश्न ढेर सारे हैं। ऐसे प्रश्नों का उत्तर संविधान संशोधन और वैधानिक नैतिकता से ही जुड़ा हुआ है। डॉ. अंबेडकर ने संविधान सभा में इतिहासकार ग्रोट के हवाले से कहा था कि ‘वैधानिक नैतिकता’ का अर्थ संविधान और उसकी संस्थाओं के प्रति निष्ठाभाव है। भारत में आमजन विधान का आदर करता है, लेकिन दलतंत्र में वैधानिक नैतिकता नहीं है। इसलिए सरकारें बहुधा अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पातीं। तब मध्यावधि चुनाव ही होते हैं। संसदीय जनतंत्र का मुख्य उपकरण दलतंत्र है। जनतंत्र खूबसूरत विचार है। दलतंत्र ही इसे गतिशील बनाता है। समाज निरंतर परिवर्तनशील है, लेकिन राजनीतिक व्यवस्था में गिरावट जारी है। राजनीतिक सुधारों की गति भी उत्साहवर्धक नहीं है। दलतंत्र प्रतिपल चुनाव चिंतन में ही व्यस्त रहता है। चुनाव चिंतन को राष्ट्रचिंतन के खूंटे से बांधना ही होगा। साथ-साथ चुनाव एक राष्ट्रहितैषी प्रगतिशील वैकल्पिक विचार है। 1952 से लेकर 1967 तक यही हुआ था और तब कोई पहाड़ नहीं टूटा तो अब इसे अपनाने में क्या कठिनाई है?
नीति आयोग ने 2024 से इसकी शुरुआत का सुझाव दिया है। सात वर्ष का समय कम नहीं। सभी दल खुले मन से विचार करें। लोकसभा, विधानसभा के साथ स्थानीय निकायों के चुनाव पर भी। सभी एक साथ नहीं तो विधानसभा के साथ पंचायतों, नगर निकायों के चुनावों पर विचार हो। कहीं से तो शुरुआत करनी होगी। हर समय चुनाव का तनाव समाज नहीं झेल सकता और न ही चुनाव संचालन में खर्च होने वाली भारी-भरकम धनराशि का बोझ। आमजन भी ऐसी राजनीति से ऊब गया है। इसलिए राजनीति को दीर्घकालिक राष्ट्रनिर्माण के लक्ष्य से जोड़ना चाहिए। चुनावी जीत हार के अल्पकालिक लक्ष्य से नहीं। दल, नेता या चुनावी जीत-हार स्थाई नहीं। राष्ट्र स्थाई सत्ता है। सभी सामाजिक, राजनीतिक या संवैधानिक संस्थाएं राष्ट्र का ही विस्तार हैं। व्यापक राजनीतिक सुधारों का कोई विकल्प नहीं। इसमें देरी का कोई औचित्य नहीं।
[ लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष हैं ]