धर्मेंद्र सिंह

दो से छह अक्टूबर के मध्य भारत में प्रतिवर्ष वन्य-जीव सप्ताह मनाया जाता है। दो अक्टूबर की यह तिथि स्वत: वन्यजीव सप्ताह को एक अनन्य प्रतीकात्मक महत्व दे देती है। गांधी के पर्यावरण और पारिस्थितिकी संबंधी विचारों को उनके राजनीतिक दर्शन के सापेक्ष अधिक महत्व नहीं दिया गया है। अहिंसा और सत्याग्रह के दर्शन को असंदिग्ध रूप से उनके राजनीतिक दर्शन में धुरी का स्थान प्राप्त है। गांधी जी के अहिंसा के दर्शन को प्राय: उस बौद्धिक नजरिये से अधिक व्याख्यायित किया जाता है जो उनके विचारों को उपनिवेशवाद और बीसवीं सदी के उग्र साम्राज्यवाद के बरक्स रखकर देखता है, लेकिन स्वयं गांधी जी के लिए उनकी अहिंसा उस भारतीय परंपरा का अविच्छिन्न अंग थी जो पश्चिमी दर्शन के विपरीत जीवन को एक समग्रता-बोध में देखती है। उनकी अहिंसा का संदेश केवल ‘मनुष्य से मनुष्य’ के लिए ही नहीं था। 19 जनवरी, 1937 के ‘हरिजन’ के अंक में उन्होंने लिखा कि ‘मेरा यह अटल विश्वास है कि ईश्वर के बनाए गए हर प्राणी को यहां रहने का उतना ही अधिकार है जितना कि मनुष्य को। और हमें मनुष्य के रूप में अपने और शेष जीव-जगत के बीच और अधिक दया और करुणा का संबंध महसूस करना चाहिए। छह अक्टूबर, 1921 को ‘यंग इंडिया’ के अंक में गांधी जी ने लिखा कि ‘गाय का मेरे लिए अर्थ है परमात्मा की उस सत्ता से एकाकार हो जाना जो मनुष्य से परे भी व्याप्त है।’ गांधी जी के लिए पर्यावरण की संगति में जीने का ही परिणाम उनका यह सिद्धांत था कि मनुष्य उसे कम से कम आहत किए हुए जिए।


गांधी जी का दर्शन पश्चिमी ज्ञानोदय की उस बुनियादी विचारधारा के उलट था जो डेकार्ट के दर्शन से प्रभावित होकर जीवन और विचार, दोनों को द्वैत में देखने लगी थी। जहां जीवन की समस्याओं का समाधान फ्रेडरिक नीत्शे जैसे विचारकों की नजर में केवल ‘शक्ति’ के जरिये ही हो सकता था। जिसका दुष्परिणाम पूरा यूरोप और शेष विश्व पूरी बीसवीं शताब्दी में युद्ध और प्रकृति के विनाश में भोगता रहा। 1924 में गांधी जी ने ‘यंग इंडिया’ में लिखा कि ‘मैं उस अद्वैत में यकीन रखता हूं जो मनुष्य और उससे भी परे समस्त जीव जगत को एक मानती है। लिहाजा मेरे लिए किसी एक मनुष्य का आध्यत्मिक परिष्कार समूचे जगत का परिष्कार है, और किसी एक का पतन पूरे जगत का पतन’। 1972 में थर्ड वर्ल्ड फ्यूचर कांग्रेस में नार्वे के दार्शनिक अर्ने नेस ने पर्यावरण की उपयोगितावादी विचारधारा के विरुद्ध जैवमंडलीय समानता का सिद्धांत देकर एक नए दर्शन ‘इकोसफी’ को प्रस्तावित किया। खुद अर्ने नेस ने स्वीकार किया था कि अपनी इस अवधारणा को निर्मित करने में वह महात्मा गांधी के अहिंसा और प्रकृति के बारे में उनके विचारों से प्रेरित थे। दार्शनिक अर्ने नेस के इस सिद्धांत के अनुसार केवल मनुष्य को ही नहीं, बल्कि अन्य जीव-जगत को भी जीवित रहने और फलने-फूलने का सार्वभौमिक अधिकार मिला हुआ है जिसे किसी भी तरह सीमित नहीं किया जा सकता। नेस भी गांधी जी की तरह मानते थे कि जीवन जीने के ऊंचे और महंगे तरीकों ने प्रकृति पर बोझ डाला है। खुशहाल समाज के लिए ऊंचा जीडीपी ही पर्याप्त नहीं है। विकास की अपनी सीमा है।
गांधी जी के लिए सभी प्राणियों का जैविक अस्तित्व उनकी अहिंसा का बुनियादी आधार था। यह विडंबना ही है कि एक संवेदनशील समाज के रूप में हम धीरे-धीरे स्वयं इन मूल्यों से कटते गए। पिछली एक-डेढ़ सदी से हम प्राणी जगत पर इस कदर हिंसक हुए कि पारिस्थितिकी और उसमें आवासित कई जीव-जंतुओं का अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया। विकास की अंध-गति में हम पर्यावरणीय मूल्यों को भूल गए। प्रकृति हमारे लिए अंधाधुंध दोहन का क्षेत्र हो गई। हम भी पश्चिम की तरह प्रकृति और उसके नाना जीव-जगत को अपने ऐशो-आराम और सुविधाजनक जीवन-भोग में रास्ते का ऐसा कांटा समझने लगे जिसे जड़ मूल से उखाड़ फेंकना मानो अपरिहार्य हो। वन्य-जीव की विविधता में अफ्रीका महाद्वीप के कुछ देशों के बाद भारत ही वह देश है जहां हजारों वर्षों से जैव-समृद्धि फलती-फूलती रही। उच्च हिमाच्छादित इलाकों में हिम तेंदुआ, जंगली बकरी और कई तरह के हिरन निरापद जीते रहे। गंगा के स्वच्छ जल में डॉल्फिन अठखेलियां करती रहीं। शिवालिक के निम्न पर्वतीय इलाकों से लेकर राजस्थान के उच्च तापमान वाले क्षेत्रों और सुंदरवन की दलदली भूमि में बाघ विचरते रहे हैं। बारूद की खोज होने तक मनुष्य और वन्य-जीवों में संघर्ष लगभग बराबर का था। बारूद और लंबी दूरी तक मारक क्षमता वाली राइफलों के आविष्कार ने अचानक मनुष्य को एक लालची और शौकीन शिकारी में बदल दिया। वर्ष 1900 तक एक अनुमान के मुताबिक भारत में बाघों की संख्या एक लाख के आसपास थी। 1940 तक यह आबादी महज कुछ हजारों में रह गई।
1905 तक पंजाब के किसी भी जिले से गुजरने पर हजारों की संख्या में काले हिरणों के झुंड के झुंड दिखते थे। जो गैंडे आज काजीरंगा और उत्तर-पूर्व के कुछ जंगलों में अपने अस्तित्व की आखिरी लड़ाई लड़ रहे हैं, वह पंजाब तक पाए जाते थे। पाड़ा, सांभर और दलदली हिरणों से ये इलाके गुलजार थे। तुजुक-के बाबरी, जो बाबर की आत्म-कथा है, से पता चलता है कि पेशावर से पंजाब के बीच गैंडों की भरमार थी। अकबर के पास तीन हजार से अधिक प्रशिक्षित चीते थे। यह भी क्या विडंबना है कि भारत में आखिरी जंगली चीता उसी वर्ष 1947 में मार दिया गया जिस वर्ष भारत आजाद हुआ। एशियाई शेर आज सिमटकर गिरि के जंगलों तक रह गए हैं। लंबी थूथन वाले घड़ियाल कुछ 200 ही बचे हैं। जाहिर है इन्हें यदि संरक्षित नहीं किया गया तो संभव है कि हमारी अगली पीढ़ियां उन्हें किताबों के जरिये ही जानें।
आज हमारे घरों के आंगन में गौरैय्या आना छोड़ चुकी है। छोटे-छोटे कस्बों तक में दिख जाने वाले गिद्ध, जो हमें स्वयं प्रकृति द्वारा दिए गए स्वच्छता के सिपाही थे, अब नहीं दिखते। बागों से तितलियों के झुंड नदारद हैं। जाहिर है हमने इन सबके बिना रहना सीख लिया है। हम अपने पूर्वजों के उस दर्शन से बहुत आगे निकल आए हैं जिनके लिए प्रकृति और उसके सभी जीवन-रूपों का समादर उनके जीवन का अभिन्न मूल्य था। जिन्होंने ऋग्वेद में वनों की देवी अरण्यानि के लिए सूक्त रचे और उससे सह-अस्तित्व का करार किया था और यह घोषणा की थी कि अरण्यानि किसी से हिंसा नहीं करती, दूसरा भी कोई उस पर हिंसा नहीं करता। जीवों की माता ऐसी अरण्यानि की मैं स्तुति करता हूं। यही गांधी जी का समग्र अहिंसा का विचार था और जिसे पश्चिम में बहुत बाद में अर्ने नेस जैसे दार्शनिकों ने एक नए पर्यावरणीय मूल्य के रूप में प्रस्तावित किया।
[ लेखक डॉ. भीमराव अंबेडकर पुलिस अकादमी मुरादाबाद में पुलिस अधीक्षक हैं ]