सैयद अता हसनैन

कुछ दिन पहले श्रीनगर में हिंसक भीड़ द्वारा जम्मू कश्मीर पुलिस के डीएसपी अयूब पंडित की बेरहमी से पीट-पीटकर हत्या कर दी गई। इस वीभत्स घटना से पूरा देश दहल गया। यह साफ दिख रहा है कि कश्मीर में पुलिस कर्मियों को निशाना बनाने की घटनाओं में तेजी आई है और धार्मिक, क्षेत्रीय और जातीय पहचान का भी लिहाज नहीं रह गया है। चूंकि श्रीनगर घनी आबादी वाला इलाका है लिहाजा वहां पुलिस का काम और चुनौती भरा हो जाता है। पुलिस और सीआरपीएफ पर शहर की सुरक्षा का दारोमदार है और इन दोनों का रुख ही रक्षात्मक रहता है, क्योंकि दोनों शहर को आतंकी हमलों से महफूज रखने में जुटी हैं जो कतई आसान काम नहीं। कुछ महीने पहले श्रीनगर में एक निहत्थे ट्रैफिक पुलिसकर्मी को निशाना बनाया गया जबकि वह सुरक्षा नहीं बल्कि एक सामाजिक दायित्व में जुटा था। मेरा भी ऐसे वाकयों का अनुभव रहा है। पहले भी हुर्रियत के कार्यक्रमों में खुफिया विभाग के लोग मौजूद रहे हैं जिनका हुलिया कश्मीरियों से मेल नहीं खाता था। उन्हें पुलिस को सौंप दिया गया, लेकिन कभी किसी की मजाल नहीं हुई कि वह भीड़ बनकर सुरक्षाकर्मी पर टूट पड़े। भीड़ के हाथों डीएसपी अयूब पंडित की हत्या कश्मीर की अंधियारी दुनिया का निर्णायक मोड़ है। अलगाववादियों के नजरिये में यह बदलाव मुख्य रूप से दो वजहों से आ रहा है।
एक तो भारत के साथ खड़े लोगों को लगातार निशाना बनाया जा रहा है। इसका मकसद भारत की वृद्धि में भागीदार बनने की हसरत पाले युवाओं को हतोत्साहित करना है। लेफ्टिनेंट उमर फैयाज से लेकर एसएचओ फिरोज डार और पुलिस में उनके साथियों की बेरहमी से की गई हत्याओं से यह पूरी तरह स्पष्ट होता है। भर्ती शिविरों के बाहर युवाओं की उमड़ती भीड़ से बिदके हुर्रियत जैसे धड़े उन्हें डराते हैं। चूंकि पुलिस की तैनाती सेना और सीआरपीएफ की तरह एकमुश्त नहीं होती, लिहाजा उसे निशाना बनाना आसान होता है। नजरिये में बदलाव की दूसरी वजह कश्मीर में चरमपंथ का हावी होना है। जाकिर मूसा इसकी ताजा मिसाल है जो खिलाफत की वकालत करता है। लोग इसे इस्लाम के प्रसार के साथ ही जोड़ते हैं। उन्हें शायद यह भी नहीं मालूम कि दुनिया के जिन इलाकों में भी खिलाफत को स्थापित किए जाने की मुहिम चल रही है वहां उसके लिए कितना खून-खराबा हो रहा है? ऐसे माहौल में जहां पहले से ही जहर घुला हुआ हो वहां कट्टरता को बढ़ावा देना और आसान हो जाता है और सोशल मीडिया से इसे और मदद मिलती है। इसी वजह से राष्ट्र विरोधी तत्वों के हौसले बुलंद हो रहे हैं। व्यापक इस्लामी संपर्क वाली अपील उन्हें ज्यादा मददगार लग रही है। सेना को डराना अलग मसला है, लेकिन राज्य के तीनों क्षेत्रों के सभी प्रमुख धर्मों के लोगों से मिलकर बनी स्थानीय पुलिस पर हमले अलगाववादियों के लिए घातक हो सकते हैं। क्या उन्हें नहीं लगता कि इससे उन्होंने परोक्ष रूप से एक आफत मोल ले ली है। अब यह जम्मू कश्मीर पुलिस के शीर्ष नेतृत्व को तय करना है कि वे पुलिसकर्मियों के जोश और भावनाओं से रणनीतिक लाभ हासिल कर माहौल को अपने पक्ष में कैसे भुनाते हैं। सेना और सीआरपीएफ इसमें मदद कर सकती हैं। डीएसपी को इस तरह निशाना बनाने से राज्य पुलिस में सभी स्तरों पर भारी आक्रोश है। ऐसे माहौल में सभी स्तरों पर पर्याप्त सक्रियता के साथ दक्ष नेतृत्व को पहल करनी चाहिए। मैं हमेशा से जम्मू कश्मीर पुलिस की पेशेवर क्षमता का कायल रहा हूं और अब वक्त आ गया है कि वह अपनी इस क्षमता का बढ़िया तरीके से प्रदर्शन भी करे।
अपनी धार खो चुकी हुर्रियत का नए सिरे से सिर उठाना खतरनाक संकेत है और इस मामले में तुरंत फैसला लेने की जरूरत है। श्रीनगर और आसपास के इलाकों में सुरक्षा ग्र्रिड को तुरंत मजबूत बनाना होगा। आतंकी हमलों से बचाव करने वाली रक्षात्मक ग्र्रिड को भी आक्रामक बनना होगा। श्रीनगर में हफ्त चिनार और टैटू ग्र्राउंड में सेना की जमीन कायम रखने की हमारी दलीलों की अहमियत अब समझ आ सकती है। श्रीनगर में सेना की मौजूदगी हमेशा पुलिस की मददगार रही है और इसी वजह से अलगाववादियों ने हमेशा यही चाहा कि सेना श्रीनगर से बाहर चली जाए। नेता भी अलगाववादियों की मांग के पीछे लामबंद हो गए। संघर्ष में ठहराव आने का अर्थ यह कतई नहीं होता कि उसका स्वत: समाधान निकल गया। यह चरणबद्ध प्रक्रिया है जिसमें तमाम झटके भी लगते हैं और यही वजह है कि हम आज भी नुकसान भुगत रहे हैं। मुझे मिसाल बन गए लेफ्टिनेंट जनरल मोहम्मद जकी जैसे सैनिक याद आते हैं। जम्मू कश्मीर सरकार के सलाहकार के तौर पर नब्बे के दशक की शुरुआत में उन्होंने गढ़वाली सैनिकों के साथ श्रीनगर में अभियानों को अंजाम दिया। हालांकि हालात उतने खराब नहीं हुए हैं, लेकिन अगर हम रक्षात्मक बने रहे तो जरूर बदतर होते जाएंगे। पहाड़ों के पास जलमार्ग और दलदली जमीन के अलावा श्रीनगर जैसे घने बसे शहर आतंकियों के लिए जन्नत जैसे होते हैं, लिहाजा वहां पुलिस सक्रियता बढ़ानी होगी। छोटी टुकड़ियों में निगरानी के परंपरागत तरीकों से पुलिस की कोशिशें फलीभूत होंगी। लोग पंजाब में केपीएस गिल की रणनीति की बेजा आलोचना करते हैं कि उन्होंने लोगों का उत्पीड़न किया। असल में वह उत्पीड़न नहीं, बल्कि पुलिस तंत्र को सक्षम बनाना था जिसे शीर्ष से पूरा सहयोग मिला हुआ था।
मैंने अक्सर श्रीनगर केंद्रीय कारागार के किस्से सुने हैं। वहां पूरी तरह आतंकियों के बोलबाले की बात सुनने में आती है। ऐसे में सुनिश्चित करना होगा कि कश्मीर में कारागार तंत्र सक्षम बना रहे। जब देश की एकता-अखंडता पर खतरा मंडरा रहा हो तो हम ऐसा कारागार तंत्र गवारा नहीं कर सकते जो आतंकवाद-अलगाववाद के खिलाफ मुहिम को कमजोर बनाए। जैसा कि पहले भी जिक्र किया कि हुर्रियत फिर से ताकत हासिल करने की जुगत भिड़ा रही है। अपने अलगाववादी एजेंडे में उसने कोई ढील नहीं दी है। एनआइए की छापेमारी से उसकी वित्तीय रूप से कमर टूटने की उम्मीद है। उसे पूरी तरह अप्रासंगिक बनाने की रणनीति बनानी चाहिए। आतंकियों को निशाना बनाने और वित्तीय मदद पर प्रहार के अलावा आतंक के सिर उठाते फन को कुचलने में सबसे बेहतर यही होगा कि उनके आकाओं पर शिकंजा कसा जाए। 2011 के आतंकी अभियान को कुंद करने में खासी कामयाबी इसी वजह से मिली थी कि आतंक प्रभावित क्षेत्रों में आतंकियों के आकाओं पर कड़ा शिकंजा कसा गया। कुलगाम, शोपियां, पांपोर, अनंतनाग, सोपोर और हंदवाड़ा जैसी जगहें तब भी आतंक के केंद्र में थीं और भविष्य में भी बने रहने की आशंका है। यहां धरपकड़ प्रभावी होगी। इसके लिए सेना, पुलिस, आइबी, सीआइडी और सीआरपीएफ की संयुक्त टीमें प्रभावी असर दिखा सकती हैं।
कश्मीर में आतंक एवं घुसपैठ विरोधी दस्तों ने बढ़िया काम किया है, लेकिन और सुधार की दरकार है। दक्षिण कश्मीर में सेना की अतिरिक्त तैनाती और श्री अमरनाथ यात्रा सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम आतंकियों के लिए हमलों की गुंजाइश घटा देंगे। यह रणनीतिक पहल का नहीं, बल्कि नीतिगत और परिचालन संतुलन बनाए रखने का वक्त है। इससे भविष्य में सरकार को ज्यादा विकल्प मिलेगे। इस बीच अगर किसी पहल की जरूरत है तो वह यही कि ग्र्रामीण इलाकों में लोगों से संपर्क बढ़ाया जाए जहां सरकारी कर्मियों की आवाजाही फिर से मुश्किल बन गई है। सेना इसे बढ़िया से अंजाम दे। आखिर राज्य को पटरी पर लाने की उसके कंधों पर महती जिम्मेदारी जो है।
[ लेखक सेवानिवृत्त लेफ्टिनेंट जनरल हैं ]