नाइश हसन

औरत की संपूर्ण आजादी के संघर्ष में आज का दिन खास है। सभी महिलाओं को आज का दिन मुबारक हो। जब बात संपूर्ण आजादी की हो तो उससे जुड़ा हर सवाल महत्वपूर्ण हो जाता है। वह चाहे काम के घंटे का हो या फिर मान-सम्मान का। आज जब महिलाओं की आजादी और अधिकारों की बात खूब हो रही है तब यह नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि इन दिनों बच्चियों को भी बुर्का पहनाने का चलन तेजी से बढ़ता जा रहा है। मुस्लिम इलाकों में मासूम बच्चियां बुर्के में जाती दिख जाएंगी। बुर्के की दुकानों में जो डमी खड़ी दिखती थीं उनमें भी एक नया इजाफा हुआ है। अब उनमें तीन-चार साल की बच्ची भी बुर्के में नजर आ रही है। यानी बाजार के जरिये यह स्थापित करने का प्रयास हो रहा है कि बुर्का तीन-चार साल की उम्र में भी जरूरी है। यह सब यूं ही नहीं हो गया। इसके पीछे भी प्रतिगामी ताकतों की अपनी सियासत है। औरतों की बेहतर होती स्थिति से डरा हुआ समाज अब दूसरे हथकंडे ढूंढ़ने लगा है। जैसे रेगिस्तान में ऊंट और घोड़ों की आंख पर पट्टीनुमा बुर्का लगाते हैं ताकि गाड़ी हांकने वाला उसे अपने मुताबिक नियंत्रण में रख सके, कुछ वैसे ही बुर्के का भी मामला है। बुर्के का कुरान के संदेश से कोई लेना-देना नहीं। बहुत अहम बात जो काबिले गौर है वह यह कि इस्लाम पूर्व के अरब समाज में तो बुर्का शब्द मौजूद था और सातवीं शताब्दी में अरबिक शब्दावली में भी बुर्का शब्द नजर आता है, परंतु कुरान में फिर भी कहीं बुर्का शब्द का प्रयोग औरत के पर्दे के लिए नहीं आया। उस वक्त बुर्का शब्द का मायने था कपडे़ का टुकड़ा, जिसका प्रयोग सर्दियों से बचने के लिए होता था। अरब का एक बहुत प्रसिद्ध शब्दकोष लिसान-अल-अरब में बुर्का शब्द के दो अर्थ दिए गए हैं। पहला-एक कपड़ा जिसका प्रयोग जानवरों को सर्दियों में ढंकने के लिए होता है। दूसरा अर्थ-शाल जैसा एक कवर, जिसका प्रयोग गांव की औरतें करती हैं।
इतिहास बताता है कि वेल या बुर्का शब्द पर्सिया से आया, उसी तरह जैसे पर्सियन कल्चर के और बहुत से शब्द अरब कल्चर में प्रयोग होते रहे हैं। एक और मजे की बात जिस पर तवज्जो देना जरूरी है कि आज हिंदुस्तान में हिजाब शब्द का प्रयोग भी बुर्के के बराबर ही किया जा रहा है जबकि हिजाब का अर्थ होता है कर्टेन यानी खिड़कियों और दरवाजों पर लगाया जाने वाला पर्दा। हिजाब शब्द का प्रयोग कुरान में जरूर सात बार किया गया है, लेकिन आज प्रयोग होने वाले अर्थ के तौर पर नहीं। दुनिया के तमाम देशों में बुर्का या हिजाब किस तरह बाद में चलन में आया, इसकी गवाह सत्तर के दशक की अफगानी और ईरानी औरतों की तस्वीरें हैं जिनमें वे बुर्के में नहीं दिखतीं। इन फोटोग्र्राफ में वे पूरी तरह से पश्चिमी कपड़ों में सड़कों पर घूमती नजर आती हैं। 1979 के बाद ईरान में बिना स्कार्फ लगाकर सड़क पर औरत का निकलना गैरकानूनी बना दिया गया। इसी तरह 1996 से 2001 के बीच जब अफगानिस्तान में तालिबान का वर्चस्व बढ़ गया तो बुर्का अनिवार्य कर दिया गया। भारत में भी पिछले दस सालों से बुर्का पहनने का चलन बढ़ा है और अब तो वह छोटी बच्चियों के लिए भी उपलब्ध है। यह भारत के मुसलमानों पर सऊदी अरब और वहाबियत का बढ़ता प्रभाव ही है। यह जग जाहिर है कि जब-जब धार्मिक ताकतों का दबाव देश और समाज पर बढ़ा, औरत पर नियंत्रण और पर्दा, दोनों बढ़ गया।
ईरान की एक महिला मसीह अलीनेजाद ने पिछले साल सोशल मीडिया पर हिजाब फ्री अभियान की शुरूआत की और ईरानी महिलाओं से फेसबुक पेज पर बिना हिजाब की एक फोटो पोस्ट करने को कहा तो लाखों की संख्या में महिलाओं ने फोटो पोस्ट कर दीं। ऐसा तब हुआ जब ईरान में अभी भी बिना हिजाब के सड़क पर निकलने पर गिरफ्तारी हो सकती है। इसके बावजूद महिलाओं ने बड़ी संख्या में अपनी फोटो पोस्ट की। यह इस बात का सुबूत है कि इंसान के अंदर कुछ ऐसा है कि वह पाबंदियां पसंद नहीं करता। आज मसीह के दस लाख से अधिक फैन हैं। भारत में भी बुर्का फ्री लाइफ कैंपेन फेसबुक पर चल रहा है जिस पर महिलाओं से कहीं अधिक पुरूषों के कमेंट आते हैं। वे गुस्से में बुर्का न पहनने वालियों को सीधे बिकनी पहनने का सुझाव देते हैं। गौर करें कि जिन्हें बुर्का नहीं पहनना उन्हें बुर्के की चिंता औरतों से भी अधिक है। छोटी-छोटी लड़कियों को बुर्का पहनाए जाने का चलन पहले न तो भारत में था और न ही किसी अन्य मुस्लिम देश में। यह नया खतरनाक चलन है जो बच्चों के मानसिक विकास को रोकेगा। उनकी हिम्मत को कम करेगा और उन्हें घर तक कैद करेगा। उन्हें दौड़ने, कूदने, स्वीमिंग पूल में जाने, पेड़ पर चढ़ने जैसे कामों और तमाम खेलों से रोकेगा और इस तरह उनका बचपन छीन लेगा।
अगर बच्चियों को बुर्के में रहने का आदी बनाया जाएगा तो उनके बडे़ होने पर बुर्का उनके संपूर्ण विकास में बाधा ही बनेगा। वह उन्हें बहुत से व्यवसाय में भी जाने से रोकेगा। जैसे वह पर्वतारोही नहीं बन सकती, वह तैराक नहीं बन सकती, वह मछली पकड़ने, खेतों की गुड़ाई करने का काम बुर्के में नहीं कर सकती। यह मेरी नजर में बच्चों के मानवाधिकारों के हनन का मामला है। इस पर गंभीरता से विचार होना चाहिए। बाल आयोग और बच्चों के लिए काम करने वाले संगठनों को भी इसका संज्ञान लेना चाहिए। बच्चियों को बुर्का पहनाने के खिलाफ उन तथाकथित फेमिनिस्टों को भी सवाल उठाना चाहिए जिनकी नसों में पितृ सत्तात्मक मजहब का मीठा जहर घुलता जा रहा और जो बुर्के को मैटर ऑफ च्वाइस बताने लगती हैं। बुर्का मैटर ऑफ च्वाइस कतई नहीं है। आखिर उनका क्या जिन्हें बुर्का या हिजाब न पहनने पर जेल तक जाना पड़ता है? जब कुछ देशों की सरकारें हिजाब न पहनने पर सजा सुनाती हैं तो यह मैटर ऑफ च्वाइस कहां से हुआ? मुस्लिम औरतों के अधिकारों पर चर्चा के वक्त अंतरराष्ट्रीय मंचों पर इस्लामिक फेमिनिस्टों में अधिकतर खुद भी बुर्के से आजाद नहीं हो पाई हैं। उन्होंने अभी तक बुर्के पर प्रश्न खड़ा नहीं किया है। यदि सवाल नहीं उठेगा तो बदलाव भी नहीं आएगा।
हम औरतों को ध्यान रखना होगा कि वोट देने का हक हमें यूं ही नहीं मिला। उसके लिए वर्षों तक संघर्ष करना पड़ा था। किसी की पहचान को खत्म कर देना या पर्दे में छिपा कर रखना धर्म का हिस्सा हो ही नहीं सकता। इस पर सवाल करना ही होगा। तभी पितृसत्ता की जडें़ हिलेंगी और औरत मुकम्मल तौर पर आजाद हो पाएगी। जो इस बात से डरते हैं कि एक दिन महिलाएं उनसे डरना बंद कर देंगी उनके और डरने की घड़ी आने वाली है, क्योंकि आज की नारी कुछ ऐसा सोचती है:
किस्सों और किताबों से बाहर आकर
गिरी पड़ी महराबों से बाहर आकर
अपना नाम बताने को जी करता है
मेरा भी मुस्काने को जी करता है।।
[ लेखिका रिसर्च स्कॉलर एवं मुस्लिम महिला अधिकार कार्यकर्ता हैं ]